जॉन एडम का हिन्दू धर्म का दर्शन

John Adams’ View of Hinduism

जॉन एडम्स (१७३५-१८२६)

अमेरिका के राष्ट्रपति ने लिखा, “[हिन्दू] शास्त्रों की तुलना में दर्शन ज़्यादा गहराई से और कहाँ प्रकट हुआ है?”

द्वारा ऋत्विज होले, १६, कैलीफ़ोर्निया

अमेरिका में हिन्दू प्रभाव का इतिहास स्वयं हमारे राष्ट्र की स्थापना से पहले का है। इसका अध्ययन करके, उस समय हिन्दू धर्म के विरुद्ध पश्चिम के तर्कों के बारे में जान सकता है, जो बहुत कुछ उन्हीं तर्कों जैसे थे जैसै आज हिन्दू धर्म को लेकर किये जाते हैं।

इस प्रभाव को देखने के लिए, किसी को स्वयं नींव डालने वाले लोगों के पत्रों को अवश्य देखना चाहिए। ज़्यादातर लोग इन्हें—जेफ़रसन, वाशिंगटन, एडम्स, आदि को—संयुक्त राष्ट्र के निर्माण में किये गये कार्यों से जानते हैं। साथ ही, थोड़ा-बहुत यह भी ज्ञात है कि जेफ़रसन ग़ैर-यहूदी-इसाई आस्था वालों के लिए धार्मिक स्वतन्त्रता चाहते थे।

जो कम ज्ञात है, वह है अमेरिका के द्वितीय राष्ट्रपति, जॉन एडम्स का हिन्दू धर्म के प्रति प्रगाढ़ प्रेम। एडम्स प्रायः तुलनात्मक धर्मशास्त्रों का अध्ययन करते रहते थे, जो कि एक बाहरी व्यक्ति के तौर पर विभिन्न धर्मों की तुलना करने का विचार है। बाद में अपने जीवन में, राष्ट्रपति के रूप में अपने कार्यकाल के बहुत बाद, वह हिन्दू धर्म कई ग़ैर-अब्राहमीय धर्मों का अध्ययन करने लगे और इसाई धर्म से उसकी तुलना करने लगे। 

ऐसे एक अध्ययन में, जिसका वर्णन उन्होंने १८१३ में थामस जेफ़रसन को भेजे गये अपने पत्र में किया है, एडम्स ने हिन्दू धर्म और इसाईयत के बीच की समानताओं पर ध्यान दिया। उन्होंने शास्त्रों (जिसे उन्होंने शास्ताज कहा है) की प्रशंसा की, और ध्यान दिया कि उनमें इस बाद पर ज़ोर दिया गया है कि “यह पर्याप्त है कि आप दिन-प्रति-दिन, रात्रि-प्रति-रात्रि, आप उसके कार्यों में उसकी सत्ता, उसकी बुद्धिमत्ता और उसकी अच्छाइयों को प्रेम करते हैं।” इस पंक्ति, इस विचार का कि ब्रह्म सभी में विद्यमान है और केवल भक्ति पर्याप्त होती है, एडम्स ने उनके द्वारा कभी सुने गये सबसे गहन दर्शन के रूप में स्वागत किया था, और जो कि संस्कृत में प्लेटो की भव्यता के समान ही लिखा गया था। 

चूंकि बहुत से लोग पश्चिमी प्राचीन ग्रन्थों को अपनी मूल भाषा में पढ़ते थे, आश्चर्य हो सकता कि एडम्स ने संस्कृत सीखने के बारे में कैसे सोचा। उन्होंने पूछा, उन दिनों आमतौर पर प्रयोग की जाने वाली कठिन अंग्रेज़ी में, कि “क्या मिशनरियाँ संस्कृत और फ़ारसी पुस्तकों का आयात और अनुवाद करेंगी, हमें उनसे कुछ उपयोगी चीज़ सीखने को मिल सकती है जो हम न जानते हों और जो हमारी धार्मिक संकीर्णता को कम कर सकती है।” ऐसा लगता है कि वह भाषा सीखने के महत्व को तो जानते थे, लेकिन ख़ुद भाषा नहीं जानते थे।

यह आदर और ज्ञान, तब और प्रभावित करने वाला हो जाता है जब इसे एक पत्र के व्यापक सन्दर्भ मे लिया जाता है, जो कि एडम्स द्वारा जेम्स प्रीस्ट्ले नाम के एक आदमी के लेखन के ख़िलाफ़ गुस्से में लिखा गया था, जिसे वह “बेतुका, बात बदलने वाला, बिना सबूतों के अपनी बात पर अड़े रहने वाला और समझ से परे” कहते थे।

प्रीस्ट्ले एक धार्मिक इसाई थे, जो एक प्रसिद्ध रसायनज्ञ थे जिन्होंने चूने के पानी की खोज की थी। वह अंश-कालिक तुलनात्मक धर्मविज्ञान का अध्ययन करने वाले भी थे, जो मुख्यतः ग़ैर-अब्राहमी धर्मों पर केन्द्रित करते थे। उन्होंने मूसा की संस्थाओं की हिन्दू और अन्य प्राचीन राष्ट्रों से तुलना (bit.ly/PriestleyonHinduism) लिखी जिसमें मनुस्मृति का प्रयोग करके, यह दिखाने के लिए कि हिन्दू धर्म एक उत्पीड़क धर्म है, इसाईयत की हिन्दू धर्म पर श्रेष्ठता सिद्ध करने का प्रयास किया गया था जो कि एडम्स के अनुसार “बहुत थकाऊ और मूर्खतापूर्ण कार्य” था।

एडम्स प्रीस्टले से बहुत आवेशपूर्ण ढंग से असहमत होते हैं, और यह दावा करते हैं कि वह बहुत अधिक पूर्वाग्रहित हैं और उन्हें हर धर्म के साथ “निष्पक्ष न्याय करना चाहिए”। उन्होंने उल्लेख किया कि प्रीस्टले ने पाइथागोरस और ग्रीक सभ्यता की प्रशंसा की है, उन्होंने उनकी आलोचना की कि वे यह बताना कैसे भूल गये कि पाइथागोरस ने भारत की यात्रा की थी।

बाद में, एडम्स ने दावा किया कि “पाइथागोरस और प्लेटो के विचार, उनकी द्रव्य, मांस और रक्त की अवधारणा, और उनकी अग्नि और जल की लगभग उपासना, उनका पुनर्कायाग्रहण [जैसा लिखा है, वास्तव में पुनर्जन्म का सिद्धान्त]” पूर्ण रूप से उनके नहीं थे, बल्कि “बहुत स्पष्ट रूप से भारत से लिये गये” थे।

वह ऐसा क्यों कहते हैं, यह एक बार पाइथागोरक और अन्य ग्रीक दार्शनिकों के विचारों को देखने पर स्पष्ट हो जाता है। इन लोगों नें अग्नि, सूर्य, जल और प्रकृति के अन्य तत्वों की उपासना की, इस बिन्दु पर कि प्रतिदिन सुबह सूर्य का अभिवादन किया करते थे—स्पष्ट रूप से सूर्य की वन्दना या सूर्य नमस्कार के समान्तर है।

पाइथागोरीय आहार बहुत सख़्त था। न केवल वे शाकाहारी थे, बल्कि उन्हें कुछ खाद्य जैसे अण्डे खाने पर रोक थी। हालांकि शाकाहार अपने आप में एक संयोग हो सकता है, लेकिन अण्डों पर रोक, जिसके आज भी बहुत से भारतीय मांसाहार मानते हैं, शायद उसका मूल भारतीय सात्विक आहार में है।

एक और मुख्य समानता, जो वह कायान्तरण की ग्रीक अवधारणा, या पुनर्जन्म के आधार पर दिखाते हैं। इसकी सम्भावना बहुत अधिक है कि यह अवधारणा भारत से ली गयी हो, और एडम्स यह तथ्य सामने लाते हैं कि कोई ऐसा सिद्धान्त नहीं है तो इसके ग्रीक का होने की विशेषता बताता हो, और कि बहुत से भारतीय साधु जैसे डांडिम, जो की चौथी सदी ईसा पूर्व के थे, अपने जीवनकाल में ग्रीक में सुप्रसिद्ध थे, और यह स्थिति के ऐसा होने की सम्भावना और अधिक बना देती है। न केवल एडम्स ग्रीक के विचारों को भारत का बताते हैं, बल्कि वे मिस्र के लोगों की विशेषता भी हिन्दू धर्म से ग्रहण की हुई बताते हैं, दिया है कि वे गायों की पूजा करते थे,—यह सब कुछ आधुनिक अकादमिक दावों से अन्तर बताता है, जैसे कि भारतीय लिपियों का भाषाई मूल मिस्र की चित्रलिपियाँ हैं।

एडम्स आगे बढ़ते हैं और कहते हैं कि इसाईयत में ट्रिनिटी की अवधारणा, आमतौर पर माना जाने वाला विचार कि एक ईश्वर तीन भागों पिता, पुत्र और पवित्र आत्मा में विभाजित होता है, ब्रह्मा, विष्णु और महेश्वर की हिन्दू अवधारणा से आया है। यह विचार, साथ ही शंकराचार्य द्वारा दिया गया यह विचार कि “एक नहीं, किन्तु अनेक भी नहीं”, इसाईयत के उदय के बहुत पहले से ही वेदों में शामिल है। इसके अलावा, यह देखने पर कि ट्रिनिटी का विचार किस तरह से अब्राहमीय एकेश्वरवाद के सीथे ख़िलाफ़ जाता है, यह समझ प्रदान करता है कि इस अवधारणा का मूल विदेशी हो सकता है।

इन छोटे मुद्दों के अलावा, एडम्स प्रीस्टले से यह कहते हुए उनकी बातों के कुल निचोड़ से ही असहमत थे की प्रीस्टले बाइबिल की तुलना मनुस्मति से करते हैं। एडम्स जानते थे कि अशुद्ध और विवादों से भरी है, इस वज़ह से वह हिन्दू चिन्तन का प्रतिनिधित्व नहीं करती है। बल्कि उन्होंने महसूस किया कि हिन्दू धर्म और अन्य धर्मों के बीच तुलना से पहले, प्रीस्टले को शास्त्रों के बारे में सीखना चाहिए था, “जो मूल हिन्दू धर्म में उनके द्वारा उद्धृत किसी भी चीज़ से ज़्यादा सम्मानित हैं”, इसके पहले कि वह किसी निष्कर्ष पर पहुँच जायें।

हम यह ठीक-ठीक नहीं जानते कि शास्त्रों से एडम्स का आशय क्या था, जो कि हिन्दू धर्म के ग्रन्थों का एक हिस्सा भर हैं। हो सकता है कि एडम्स ने मान लिया हो कि सभी पवित्र पुस्तकों को शास्त्र कहते हैं (हालांकि उन्होंने वेदों को शास्त्रों से अलग किया है)। लेकिन एडम्स का तर्क सही है और उसे आज भी बहुत से हिन्दू विशेषज्ञों द्वारा साझा किया जाता है। मनुस्मृति  हज़ारों हिन्दू ग्रन्थों में से एक है, जैसा कि कमन्दकि के नीतिसार में कहा गया है, और इससे ज़्यादा प्रसिद्ध नहीं थी जब तक कि इसे ब्रिटिश लोगों द्वारा इसे अलग से प्रमुखता नहीं दी गयी, जो कि हिन्दू नियम बनाते समय आसान रास्ता खोजना चाहते थे। इसके अलावा, मनुस्मृति में बहुत सी विरोधाभास और असम्भव बातें हैं—जैसे महिलाओं की स्थिति और विभिन्न जातियों की उत्पत्ति—जो यह बताता है कि इसका कोई एक लेखक नहीं है। तथ्य यह है कि जो मनुस्मृति आज हम पढ़ रहे हैं, और जो प्रीस्टले ने सदियों पहले पढ़ी थीं, वह मूल संस्करण जैसी बिल्कुल नहीं है, और इसलिए हिन्दू संस्कृति का आकलन करने के लिए सटीक ढंग से प्रयोग नहीं की जा सकती है। ठीक उन शास्त्रों तक पहुँचकर जिन्हें एडम्स ने पढ़ा था, हमें उनके कामों की ठीक समझ प्राप्त होगी।

जबकि हमें यह कभी ज्ञात नहीं हो सकता है कि एडम्स ने किन शास्त्रों को पढ़ा था, उनका काम शानदार और प्रासंगिक है, विशेष रूप से आज। प्रीस्टले की परम्परा अभी भी जीवित है, हालांक वे और उनको पढ़ने वाले नहीं रहे। माध्यमिक और उच्चतर माध्यमिक इतिहास की पुस्तकें, विशेष तौर पर मैकग्रा हिल, अभी भी मनुस्मृति को बहुत उद्धृत करती है (यद्यपि, उनके लिए यह भी ठीक है कि गीता और रामायण को भी उद्धृत करते हैं)। उन दिनों वे यहूदी-इसाई कथानक भी चुपचाप डाल देते थे, उदाहरण के लिए यह कहना कि इज़राइली “झूठे बुतों” की पूजा नहीं करते थे।

एडम्स की परम्परा को भूला नहीं गया है, हालांकि उनके जीवन के इस अध्याय को भुला दिया गया है, यहाँ तक कि हिन्दुओं द्वारा भी। वे जिन विश्वासों को मानते थे, उन्होंने जो आलोचनाएँ की, वे अभी की की जाती हैं। जैसा कि मैंने उनके पत्रों में पढ़ा, ऐसा लगा कि जैसे मैं आज हिन्दू शिक्षा मंच या अमेरिका हिन्दू विश्वविद्यालय के सदस्यों से बात कर रहा हूँ। ये दोनों संस्थाएँ न केवल हिन्दू धर्म के सिद्धान्तों को ठीक से समझती हैं, बल्कि विश्व को हिन्दू धर्म के योगदान को लेकर गुणारोपण की कमी और मनुस्मृति पर लगातार हमलों को लेकर हमारे दिनों के प्रमुख अकादमिकों की आलोचना भी करती हैं। एडम्स के समय में, ऐसा धर्मशास्त्र का शौकिया अध्ययन करने वाले करते थे, जैसे प्रीस्टले। हमारे दिनों में, ऐसे दर्जनों अकादमिक, पूरी दुनिया के बहुत से विश्वविद्यालयों में हैं जो बहुत कुछ ऐसे ही कथानक को मानते हैं, जिसका समर्थन प्रीस्टले ने किया था। आमतौर पर, दार्शनिक उन बातों को सुधारने की कोशिश करते हैं जो उनके पहले कही गयी हैं; इसाई विद्वान उन मूल बातों पर दुगना ज़ोर दे देते हैं।

हिन्दू समुदाय यह भूल गया है कि यदि उनके उत्तर वही बने हुए हैं, तो हमारे पास भी हमारे पीछे दशकों की विद्वता है जो उसका ज़वाब दे सकती है। न केवल एडम्स, बहुत से महान व्यक्ति—जैसे थोरियो, जो इसाई –बहुल राष्ट्रों में रहता था जो कभी भी मूर्तिपूजक हिन्दुओं के प्रति कभी भी बहुत सहानुभूति नहीं रखता था—अकादमिक दायरों में हमारे जीवनशैली का हमसे बहुत पहले से ही बचाव करता रहा है।

निराशा होकर फ़िर से चक्के का आविष्कार करने की कोशिश करने और जाति, बहुदेववाद और मूर्तिवाद पर उन्हीं हमलों के लिए नये तर्क लाने की बजाय, हमें हमारे पूर्वजों के काम को समझने के प्रति ख़ुद को समर्पित कर देना चाहिए। यह लेख एडम्स के विचारों को बारे में संक्षिप्त जानकारी देता है, अभी भी बहुत कुछ खोजना बाकी है; न केवल उनके कामों में, बल्कि अन्य अमेरिकी महान सख्शियतों जैसे जेफ़रसन के कार्यों में। वहाँ से, हम ने केवल इस देश में हिन्दू धर्म के प्रभाव की शानदार समझ हासिल कर पायेंगे, बल्कि साथ ही वे तर्क भी हासिल कर पायेंगे जिनका उस समय हिन्दू धर्म पर हमला करने के लिए प्रयोग किया जाता था, और कैसे उनका उत्तर दिया गया, ताकि हम आज हिन्दू धर्म की अधिक प्रभावशाली ढंग से सुरक्षा कर सकें।

प्रीस्टले के बारे में एडम्स

Joseph Priestley (1733–1804), chemist and prolific intellectual of his time

“प्रीस्टले को हमें बताना चाहिए था कि पाइथागोरस ने अपने जीवन के बीस वर्ष भारत, मिस्र, कैल्डिया, शायद सोडोम और ग़ोमोरा और टाइरे और श्रीलंका में यात्राओं में व्यतीत किये थे। उन्हें हमें बताना चाहिए था कि भारत में उन्होंने ब्राह्मणओं से शास्त्रार्थ किये और शास्त [यही शब्द हैं] पढ़े, जो ५,००० साल पुराने थे और पवित्र संस्कृत भाषा में थे और प्लेटो जैसे लालित्य और भावनाओं से परिपूर्ण थे। धर्मशास्त्र अधिक रूढ़िबद्ध ढंग या दर्शन अधिक प्रमुख ढंग से शास्त्रों से परिचय के अतिरिक्त और कहाँ मिलता है? ‘ईश्वर एक है, सबका सर्जक है, अखिल ब्रह्माण्ड, अनादि, अनन्त। ईश्वर सभी कृतियों पर एक समान ढंग से शासन करता है, जो उसकी अनन्त निर्माणों से प्राप्त होती है। परमपिता के सार और प्रकृति की तलाश किये बना, जो कि एक है; तुम्हारा शोध व्यर्थ और दुराग्रही हो जायेगा। यह पर्याप्त है कि आप दिन-प्रति-दिन, रात्रि-प्रति-रात्रि, आप उसके कार्यों में उसकी सत्ता, उसकी बुद्धिमत्ता और उसकी अच्छाइयों को प्रेम करते हैं। परमपिता ने इच्छा व्यक्ति कि, कि समय की पूर्णता में, अपने सार और को उन तक पहुँचाये जो इसे ग्रहण करने में सक्षम हैं। वे अभी तक अस्तित्व में नहीं थे। परमपिता ने इच्छा की और वे प्रकट हो गये। उन्होंने ब्रह्मा, विष्णु और शिव का निर्माण किया।’ ये सिद्धान्त, उदात्तता, यदि कोई उदात्तता रही हो, पाइथागोरस ने भारत में सीखी थी और उसे ज़ीलैकस और अपने अन्य शिष्यों को सिखाई थी।”

जोसेफ़ प्रीस्टले (१७३३–१८०४), रसायनज्ञ और अपने समय के बड़े बुद्धिजीवी


ऋत्विज होले इरविन, कैलीफ़ोर्निया के रहने वाले हैं और अमेरिकन्स फ़ॉर इक्वलिटी पीएसी के कार्यकारी सदस्य हैं और एक नवोदित हिन्दू राजनीतिक कार्यकर्ता हैं जो इस समय अपने स्थानीय स्कूल डिस्ट्रिक और पाठ्यपुस्तक कम्पनी के साथ काम कर रहे हैं ताकि शिक्षा में हिन्दू धर्म के चित्रण में बदलाव किया जा सके। उनसे rutvij.holay@gmail.com पर सम्पर्क किया जा सकता है।

Leave a Comment

Your name, email and comment may be published in Hinduism Today's "Letters" page in print and online. Required fields are marked *

This site uses Akismet to reduce spam. Learn how your comment data is processed.

Scroll to Top