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आधुनिक हिन्दू ग्रंथों में , आध्यात्मिक हिन्दू साधनाओं का सबसे आम सारांश हैं चार योग : कर्म , भक्ति, राज और ज्ञान. आइये हम शुरुआत करते हैं इनमे से हर एक के संक्षिप्त विवरण से और इसके बाद इस प्रश्न पर विचार करते हैं , “मुझे इस समय किस योग या योगों का पालन करना चाहिए ?”

कर्म योग क्रिया का पथ है. इसकी शुरुआत होती है जो नहीं करना चाहिए उससे परहेज़ करने से. अगली बात हम यह देखते हैं कि उन क्रियाओं से परहेज़ करें जो केवल मात्र अपनी स्वार्थी इच्छाओं से प्रेरित हैं, वे क्रियाएं जो केवल हमें लाभ पहुंचाती हैं. इसके बाद आती है इच्छा अपने जीवन के कर्तव्यों को शुद्ध अन्त : करण से परिपूर्ण करने की. कर्म योग का एक महत्वपूर्ण पेहलू है दूसरों की सहायता के लिए नि:स्वार्थ सेवा करना. जब हम सफल होते हैं, हमारा कार्य पूजा में परिवर्तित हो जाता है. मेरे परमगुरु श्री लंका के योगस्वामी नें इस सिद्धांत की मूल भावना को आत्मसात किया जब उन्होंने कहा, “सब कार्य प्रभु की प्राप्ति के लिए किया जाना चाहिए.”

भक्ति योग श्रद्धा और प्रभु के प्रति प्रेम का मार्ग है. इसका अभ्यास प्रभु की कहानियां सुनने , श्रद्धा पूर्ण भजन गाने , तीर्थ यात्रा करने, मंत्र जाप करने एवं मंदिरों व घर के मंदिर में पूजा करने पे केन्द्रित है. भक्ति योग के सुख अनुभव स्वरुप इश्वर से बेहतर सामीप्य एवं तालमेल होना, उन गुणों का विकास जिनसे इश्वर से जुड़ना संभव हो- प्रेम, नि:स्वार्थ भाव एवं शुद्धता – अन्तातेह यह ले जाते हैं प्राप्ति की ओर , निज अहेम भाव का नष्ट होना एवं प्रभु के प्रति सम्पूर्ण समर्पण. मेरे गुरु सिवाय सुब्रमुनियस्वामी नें यह अंतर्मन से निकली परिभाषा दी, “भगवान प्रेम हैं , तथा भगवान को प्रेम करना आगमों [प्रगट हुए शास्त्र की एक श्रेणी] द्वारा निर्धारित पथ है. सच्चे मायनों में यह ग्रन्थ भगवान की खुद की आवाज़ हैं जो की सांसारिक को डांटती है , जो की पुनर्जन्म का पथिक है, कि वेह क्षण भंगुर के प्रेम को छोड़ कर अमरत्व को प्रेम करे. ईश्वरीय को कैसे प्रेम करें , कब और कहाँ , किन मन्त्रों द्वारा एवं मानस दर्शन से एवं किन शुभ घड़ियों में, यह सब आगमों में संरक्षित है.”

राज योग ध्यान का मार्ग है. यह आठ प्रगतिशील चरणों कि एक प्रणाली है : नैतिक नियंत्रण, धार्मिक अनुपालन, आसन, श्वास नियंत्रण, वापिस लाना, एकाग्रता, ध्यान

और निजत्मा में केन्द्रित होना , या रहस्यवादी एकता. ध्यान केन्द्रित करना होता है मन के संशोधनों के नियंत्रण पर जिससे कि हमारी जागरूकता – जो कि सामान्यता मन के संशोधनों का रूप धारण कर लेती है – अपने मूल भूत रूप में रह सके. इन संशोधनों पर नियंत्रण अभ्यास एवं अनासक्ति द्वारा पाया जा सकता है. मेरे गुरु मन के संशोधनों का बयाँ करने के लिए चेतना शब्द का इस्तेमाल करते थे- “चेतना एवं जागरूकता एक ही हैं जब जागरूकता पूरी तरह से उससे पहचानी एवं जोड़ी जाती है जिसकी की वो जानकार होती है. दोनों को अलग करना योग के अभ्यास की कला है.”

ज्ञान योग ज्ञान का पथ है. इसमें शामिल है वास्तविकता एवं अवास्तविक के बीच का दार्शनिक अध्ययन एवं भेदभाव. जबकि ज्ञान शब्द मौखिक जड़ ज्ञा से बना है जिसका साधारण मतलब ज्ञान है , इसका दार्शनिक अर्थ ऊँचा है. यह केवल बौधिक ज्ञान नहीं है बल्कि आतंरिक अनुभव भी है. यह पहले से शुरू हो के दुसरे तक पहुँचता है. ज्ञान योग तीन प्रगतिशील प्रथाओं से बना है : श्रवण [शास्त्रों को सुनना ], मनन – सोचना एवं विचारना ; एवं निदिध्यासना – लगातार एवं गहरा ध्यान. उपनिषदों की चार महान कहावतें अक्सर सोच विचार का मुद्दा होती हैं : “चेतना ब्रह्मा है “, “तू वेह है”, “यह आत्मा स्वयं ब्रह्मा है”, एवं “में ब्रह्मा हूँ”. चिन्मय मिशन के स्वामी चिंमयानान्दा सिखाते थे, “ज्ञान योग का उद्देश्य है , विवेक द्वारा , वास्तविकता एवं अवास्तविकता के बीच के फरक को समझना एवं अंततेह परम वास्तविकता के साथ अपनी पहचान को समझना.”

संक्षिप्त में चारों प्राथमिक योग पे नज़र डालने के पश्चात , आइये हम इस बात पर ध्यान दें की विभिन्न सोच रखने वालों नें उनको कैसे देखा. इससे आपको मदद मिलेगी उस योग या योगों को चुनने की जो आप अपने आज के अध्यात्मिक स्तर को ध्यान में रखते हुए चुनेंगे. पहली और सबसे व्यापक रूप में अपनाई जाने वाली सोच है योग का चुनाव अपने स्वभाव को ध्यान में रखते हुए करना. साउथ कैलिफोर्निया की वेदान्त सोसाइटी नें इस दृष्टिकोण को अपने वेबसाइट पे इस तरह प्रस्तुत किया है ,” अध्यात्मिक साधकों को चार प्रमुख मानसिकता वालों के रूप में वर्गीकृत किया जा सकता है : मुख्य रूप से भावनात्मक, मुख्य रूप से बौधिक, शारीरिक रूप से सक्रिय , ध्यान करने वाले. इन हर प्रकार की मानसिकता वालों के लिए चार प्रकार के प्राथमिक योग हैं जो उन्हें फिट करेंगे .” इस दृष्टिकोण के हिसाब से प्रमुख रूप से भावनात्मक के लिए भक्ति योग की सिफारिश की गयी है , बौधिक के लिए ज्ञान योग, शारीरिक रूप से सक्रिय के लिए कर्म योग एवं ध्यान लगाने वाले के लिए राज योग.

जबकि , कुछ समय ऐसे सिफारिश की जाती है कि बौद्धिकता कि तरफ दिलचस्पी रखने वाले साधकों को ज्ञान योग से दूर रहना चाहिए. अपनी पुस्तक ‘मूर्खो के लिए हिंदुइस्म ‘ में लिंडा जोहन्सन नें यों बयां किया है, “अपने को तेज़ समझते हो ? यह आश्चर्यजनक है कि , हिन्दू गुरु अक्सर चमकते हुए लोगो को भक्ति मार्ग की सलाह देते हैं, ज्ञान योग की नहीं. ऐसा इस लिए की बहुत बुद्धिमान लोगों को ज्यादातर फायदा अपने ह्रदय को अधिक खोलना सीखने से होता है. ज्ञान योग बौधिक लोगों के लिए उतना नहीं हैं जितना उन लोगों के लिए जिन्मे एक मजबूती से विकसित रहस्यमयी भावना हो और भगवान की प्राप्ति के वास्तविक अनुभव की जलती हुई इच्छा हो. ”

एक अन्य दृष्टिकोण हो सकता है कि एक योग को प्राथमिक केंद्र के रूप में अपने स्वाभाव के अनुसार चुनें लेकिन साथ साथ अन्य तीन योग का अभ्यास भी दुसरे स्थान पे करते रहें. डिवयीन लाइफ सोसाइटी के संस्थापक स्वामी सिवानान्दा का मानना है कि जबकि साधक स्वाभाविक रूप से एक पथ की तरफ झुकते हैं , हर पथ से मिली सीख को इकठा करना जरुरी है अगर साधक को सच्चे विवेक की प्राप्ति करनी है. उनकी संस्था का आदर्श वाक्य है , “सेवा, प्रेम , ध्यान, एहसास,” जो कि क्रमश : चार योग का ही जिक्र करते हैं : कर्म , भक्ति, राज एवं ज्ञान.

एक तीसरा दृष्टिकोण इस बात पर जोर देता है कि चार योग में से एक या अन्य ही एक और उच्चतम मार्ग है और उसका हर किसी के द्वारा पालन किया जाना चाहिए. सभी वैष्णव संस्थानों द्वारा भक्ति योग या भक्ति के अभ्यास को अपने सभी अनुयायिओं के लिए सिफारिश करना एक सामान्य बात है. दुसरे शब्दों में , वैष्णवों का केंद्र स्वयं से ऊपर उठ कर प्रेम एवं समर्पण मुक्ति के प्रमुख साधनों में हैं. इसके साथ कर्म योग की सलाह दी जाती है भक्ति के लिए शुद्धिकरण एवं तयारी की जा सके. श्री रामानुज नें कहा है ध्यान या परमात्मा की मननशील स्मृति हेतु व्यक्ति को कर्म योग में जुटना चाहिए. कुछ वेदान्तिक परम्पराओं द्वारा ज्ञान योग को सबका मार्ग बताया जाता है. उदाहारण के लिए, आदि शंकरा की स्मार्ट परंपरा में कर्म योग का एक प्रारंभिक साधना के रूप में अभ्यास किया जाता है जो ज्ञान योग की ओर व्यक्ति को ले जाती है, इसे दार्शनिक समझ के हिसाब से ध्यान के रूप में परिभाषित किया गया है. इस विचार को शंकरा की विवेक्चुडआमानी में पाया जा सकता है. ” सत्य की प्राप्ति बुधि द्वारा भेद करने से होती हैं ना कि दसियों लाख कार्यों के करने से.” एक चौथा दृष्टिकोण यह है के कर्म योग, भक्ति योग, एवं राज योग के अभ्यास द्वारा ज्ञान योग तक पहुँचने की तयारी होती है, या भगवान से एकात्मता एवं प्रभुधता हासिल होती है. विश्व धर्मं मंडलम , न्यू योर्क सिटी के स्वामी रामाक्रिश्नानान्दा नें लिखा है, ” ज्ञान योग में प्रवेश से पूर्व, यह महत्वपूर्ण होगा कि एक साधक सेवा के क्षेत्र में बढ़ता एवं विक्सित होता है, या फिर कर्म योग में, प्रभु भक्ति में, या भक्ति योग में , एवं ध्यान में , या राज योग में, क्योंकि इस दर्शन का अद्ध्ययन बिना किसी तयारी के करने से व्यक्ति को एक ‘बोलने वाले वेदांती’ होने का जोखिम रहता है , ऐसा व्यक्ति जो उस विषय पर बात करता है जिसे वेह सच्चे मायनों में जानता नहीं है. सिवानान्दा योग वेदान्त सेंटर के स्वामी विशुधानान्दा नें मिलते जुलते विचार को प्रतिपादित किया :”ज्ञान योग के अभ्यास से पूर्व , साधक को दुसरे योग के पथों से सीखी हुई बातों को इकठा करना होगा – क्योंकि बिना नि:स्वार्थ एवं परमात्मा के प्रेम के , शरीर एवं मन क़ी शक्ति , स्वयं को पाने क़ी खोज एवं प्रभु क़ी प्राप्ति केवल मात्र निष्क्रिय अटकलें साबित हो सकती हैं.”

सतगुरु सिवाय सुब्रमुनियम स्वामी नें इस चौथे दृष्टिकोण में बुधिमत्ता देखी. उन्होंने कहा, “कर्म योग एवं भक्ति योग उच्च स्तर के दर्शन एवं अभ्यास की प्रस्तावना मात्र हैं.” वास्तव में उन्होंने सिखाया कि योग [या पद] संचयी चरण हैं. इसके इलावा जब पथ पर आगे बढ़ रहें हों तो किसी को भी छोड़ा नहीं जा सकता. भक्ति के बारे में उन्होंने कहा, “हम कभी भी मंदिर में की जाने वाली पूजा से ऊपर नहीं उठ सकते हैं. यह मामूली रूप से और अधिक गहरी एवं सार्थक हो जाती है जैसे जैसे हम चार अध्यात्मिक स्तरों में आगे प्रगति करते हैं. कर्म योग या चर्या पद के दौरान , नि:स्वार्थ सेवा के स्तर पर, हम मंदिर में शामिल होते हैं , क्योंकि हमें होना पड़ता है , क्योंकि इसकी हमसे आशा की जाती है. भक्ति या क्रिया पद में , पूजा करने वाली साधनों के स्तर के दौरान , हम शामिल होते हैं क्योंकि हम होना चाहते हैं ; प्रभु के प्रति हमारा प्यार एक प्रेरणा होता है. योग पद के दौरान , हम प्रभु कि आतंरिक रूप से पूजा करते हैं, अपने ह्रदय के भीतर ; तब भी योगी जिसका मन परम चेतना कि गहरायिओं में डूबा होता है , मंदिर से फिर भी बाहर या बड़ा हो के विकसित नहीं होता . यह वहीँ है – भगवान का घर ज़मीन पर- जब योगी सामान्य चेतना के स्तर पर वापिस आता है. जिन्होंने ज्ञान पद के रास्ते पे चला हो उनकी मंदिर कि पूजा इतनी सम्पूर्ण होती है कि वे स्वयं पूजा की वस्तु बन जाते हैं- जीवंत, चलते फिरते मंदिर. ”

आप भ्रमित हैं की किस योग या योगों का चुनाव किया जाये ? सच में अगर आपका शिक्षक हैं तो यह उसके साथ बातचीत का एक बेहतरीन मुद्दा हो सकता है. अगर आपका शिक्षक नहीं है तो एक रुढ़िवादी दृष्टिकोण यह हो सकती है कि पहले कर्म योग एवं भक्ति योग पर कार्य करें. यह योग तेज़ी के साथ अहम् पर कार्य करते हैं और गहन प्राप्ति के मार्ग में आने वाली बाधाओं को साफ़ कर देते हैं. उनके अभ्यासों के फायदों में शामिल होंगे मन का धीरे धीरे शुद्धिकरण होना , बड़े स्तर पर नम्रता का होना एवं निस;स्वार्थता एवं भक्ति का बढ़ना एवं निश्चित रूप से हमारे सारे कार्यकलापों का तेज़ी से हमें भगवान के समीप ले जाना.