The Ancient Agamas Have Solutions for Modern Issues in Temple Administration

इन विस्तृत नियमावलियों में मन्दिरों को बनाने के तरीके से लेकर पूजा की विधियों और व्यावहारिक प्रबन्धन तक के हर पहलु आते हैं

मन्दिर प्रबन्धन पर एक शानदार नयी पुस्तक का प्रकाशन हुआ है, जो मन्दिरों का प्रशासन करने वाले ग्रन्थों पर आधारित है। दायीं तरफ़ पूरी किताब की समीक्षा है, और नीचे उन पहलुओं का सार-संक्षेप है जो मन्दिर प्रबन्धन पर सीधे लागू होते हैं और आज सर्वाधिक प्रासंगिक हैं।

The huge Annamalaiyar Siva Temple in Tiruvanna­ma­lai, Tamil Nadu has hundreds of staff. Chris l Jones/Dinodia

तिरुवन्नामलाई, तमिलनाडु के विशाल अन्नामलैयार शिव मन्दिर में सैकड़ों कर्मचारी हैं। क्रिस एल जोन्स /डिनोडिया

विद्यासागर तोन्तलापुर, यूएसए

हिन्दू धर्म शिव के मन्दिर को ईश्वर का स्वरूप मानता है। मन्दिर का गर्भगृह शिव का मस्तक है। विशाल प्रवेश मीनारें उनकी चरण कमल हैं, जिसके सम्मुख हम प्रवेश करने से पूर्व नतमस्तक होते हैं। मन्दिर की पवित्रता इस विचार से प्रस्फुटित होती है कि यह देवता का शरीर है, जिसके साथ अधिकतम पवित्रता, शुद्धता और आदर से व्यवहार करना चाहिए। यह ईश्वर का निवास नहीं है। यह स्वयं ईश्वर हैं।

हिन्दुओं का मानना है कि आगम ग्रन्थ ईश्वर, शिव के पाँच मुखों से सृष्टि के समय उत्पन्न हुए थे। एक ओर जहाँ वेद साधारण, पद्य और प्रतीकात्मक हैं, आगम विशिष्ट चीज़ों पर केन्द्रित हैं, जिनके हृदयस्थल पर दैवीय उपासना है। वे इस विवरण से समृद्ध हैं कि किसी मन्दिर के स्थान का चयन, शैली, निर्माण, पूजा, प्रबन्धन और रखरखाव कैसे करें। आगम, वेदों की ही भाँति, विशाल हिन्दू श्रुतियों (जिसे सुना जाता है) के भाग हैं—जो प्रमाणिक ग्रन्थ हैं। 

हिन्दू धर्म का पालन न करने वालों द्वारा हिन्दू धर्म के बारे में लिखी गयी पुस्तकें परम्परा के विश्लेषण के लिए एक पाश्चात्य, और ज़्यादातर अब्राहमीय दृष्टिकोण का प्रयोग करती हैं। वे आम तौर पर हिन्दू धर्म में कमी तलाशने की कोशिश करती हैं, इसके सूक्ष्म, गहन दर्शन को नहीं समझते या उसपर ध्यान नहीं देते। इंडिक एकेडमी द्वारा हाल ही में प्रकाशित एक पुस्तक टेम्पल मैनेजमनेंट इन आगमाज विद स्पेशल रेफ़रेंस टू कामिक आगम बहुत भिन्न है। इसकी लेखिका डॉ. दीपा दुरैस्वामी आगमों को गहन हिन्दू परिप्रेक्ष्य से देखती हैं।

डॉ. दुरैस्वामी शिव पुजारियों की एक लम्बी परम्परा से आती हैं। वह तमिलनाडु के चेन्नई में तिरुमढ़िसाई के प्राचीन शिव मन्दिर के पास स्थित घर में बड़ी हुईं। एक बच्ची के रूप में, वह अपने विद्वान दादाजी के पीछे-पीछे मन्दिर के चारों तरफ़ चक्कर लगाती थीं। इस दैवीय संरचना की सुन्दरता और वैभव ने उन्हें पूरी तरह मन्त्रमुग्ध कर दिया। वह शायद ही जानती थी कि एक दिन वह बड़ी होकर इसी मन्दिर का अध्ययन करने लौटेंगी। 

पुणे से इंजीनियरिंग की पढ़ाई करने के बाद, उन्होंने कलकत्ता में इण्डियन इंस्टीट्यूट ऑफ़ मैनेजमेंट से प्रबन्धन की डिग्री ली। इस पूरे समय के दौरान, उनके अन्दर आगमों का अध्ययन करने और अपने पूर्वजों की दुनिया को समझने की तीव्र इच्छा थी। अपने शोध प्रबन्ध के लिए, उन्होंने कमिका आगम में वर्णित मन्दिरों के प्रबन्धन का विश्लेषण करने का निर्णय लिया, यह आशा करते हुए कि उनका शोध परम्परा और आधुनिकता के विश्व को जोड़ेगा। उनकी पुस्तक उस आशा को पूर्ण करती है और मन्दिर की आन्तरिक कार्यप्रणाली का मूल्यवान अन्तर्दृश्य प्रस्तुत करती है। 

The annual Jagannath chariot festival in Puri requires immense organizational resources

पुरी के वार्षिक जगन्नाथ रथ यात्रा पर्व को बहुत अधिक सांगठनिक स्रोतों की आवश्यकता होती है

Daily temple donations can take dozens of people to count each day

मन्दिर के रोज़ के चढ़ावे की गिनती के लिए हर दिन दर्जनों लोगों की आवश्यकता होती है

जब आगम लिखे गये थे, राजा मन्दिरों का प्रबन्धन करते थे; आज भारत में अक्सर यह स्थानीय राज्य सरकार करती हैं। उदाहरण के लिए, तमिलनाडु में, ४०,००० से अधिक मन्दिर जिसमें बड़े मन्दिर भी शामिल हैं, वह तमिलनाडु हिन्दू धार्मिक और धर्मार्थ न्यास विभाग के माध्यम से सरकार के नियन्त्रण में हैं। अनुमानित धर्मनिरपेक्ष सरकार द्वारा हिन्दू मन्दिरों में यह दखल—जिसने इसाई और इस्लाम के संस्थानों को नियन्त्रित करने का तदनुरूप कोई प्रयत्न नहीं किया—हिन्दू समुदाय के भीतर एक दुखद मुद्दा है। मन्दिर के वित्त में गड़बड़ी के और मन्दिर के स्वामित्व की दान में प्राप्त जमीनों को हड़प लेने के असाधारण उदाहरण हैं। डॉ. दुरैस्वामी का अध्ययन तुलना करता है कि आज सरकारें कैसे हिन्दू मन्दिरों का प्रबन्धन करती हैं, और कैसै राजा मध्य युग में प्रबन्धन करते थे, और यह आज की स्थिति के समाधानों की भी पेशकश करती है।

एक महान हिन्दू संस्था

मन्दिर महान संस्थाएँ होती हैं, और वे पारम्परिक रूप से भारतीय जीवन के केन्द्र रहे हैं। इतिहासकारों ने ध्यान दिया है कि प्राचीन भारत के हर बड़े गाँव के मध्य में एक विभूषित मन्दिर होता था। हालांकि तिथि ज्ञात करना मुश्किल है, भारत में सबसे पहला मन्दिर कम से कम २,५०० वर्ष पुराना था। यह केवल पूजा का स्थान नहीं था। यह लोगों के सांस्कृतिक और आर्थिक जीवन में बड़ा स्थान रखता था। इसके सर्वसमावेशी प्रकृकि को धन्यवाद, मन्दिर कस्बे का सबसे बड़ा नियोक्ता होता था। बहुत से पुजारी, माली, संगीतकार, बागवानी करने वाले, रसोइये और मूर्तिकार मन्दिर के लिए कार्य करते थे। जोतदार किसान इसकी भूमि को जोतकर जीविका कमाते थे। मन्दिर जलशयों और नहरों का निर्माण कराते थे। अध्ययन दर्शाते हैं कि मन्दिर आर्थिक चुम्बक होते थे, जो दूर-दूर से लोगों को आसपास गृहस्थी बसाने और मन्दिर द्वारा निर्मित अवसरों से लाभ प्राप्त करने के लिए खींचते थे।

Priest giving sacraments to a devotee after puja at a temple shrine. Braden Gunem/Dinodia

एक मन्दिर की जगह पर पूजा के बाद पुजारी श्रद्धालु का संस्कार करते हुए। ब्रैडेन गुनेम /डिनोडिया

आज, अधिकांश स्थानों पर, मन्दिर एक महत्वपूर्ण सामाजिक, सांस्कृति और आर्थिक केन्द्र होते हैं। यह एक जीवित परम्परा है जो अभी भी मन्दिरों द्वारा प्रदान किये जाने वाले दैवीय और आध्यात्मिकता के अद्भुद अनुभव की तलाश करने वाले हजारों श्रद्धालुओं को खींचती है। वह प्रणाली और ढाँचा जो इस अनुभव की सहायता करता है, मन्दिर को संस्था बना देता है जिसे अपने प्रबन्धन की आवश्यकता होती है, और इसी परिप्रेक्ष्य से पुस्तक को लिखा गया है।

एक आधुनिक व्यावसायिक विश्लेषण

दुरैस्वामी मन्दिर को उस श्रेणी में रखती हैं जिसे हम अब “ज्ञान उद्योग” कहते हैं। इसके कर्मियों को इसे पवित्र, स्वागत करने वाला स्थान बनाने के लिए विशेषीकृत योग्यताएँ, दक्षताएँ और प्रशिक्षण की आवश्यकता होती है। आगम किसी मन्दिर के ठीक से काम करने के लिए आवश्यक मानवीय और भौतिक संसाधनों को विस्तार से बताते हैं। लेखिका इन संसाधनों से यथाक्रम से गुजरी हैं, और उन क्षेत्रों का उल्लेख किया है जहाँ वर्तमान सरकारी प्रबन्धन पीछे छूटता है। 

शैव धर्म और मन्दिरों से उनके सामान्य परिचय के बाद, दुरैस्वामी आगमिक मन्दिर प्रणाली की विस्तार से चर्चा करती हैं, जो अध्याय दो, “शैव मन्दिर के पूजा की नियमावली” से शुरु होती है। वह एक ऐसे बातों से शुरु करती हैं जिसे लोग आमतौर पर नजरअन्दाज़ कर देते हैं: मन्दिर का प्राथमिक कर्तव्य विश्व कल्याण के लिए पूजा करना है। करण आगम में, जो एक महत्वपूर्ण शैव आगम है, दो प्रकार की पूजा का वर्णन किया गया है: आत्मार्थ पूजा (स्वयं के लिए) और परार्थ पूजा (समूह के लिए)। लोग पहले वाली पूजा अपने घर पर स्वयं की रक्षा के लिए करते हैं और बाद वाली पूजा मन्दिर में सभी जीवों के लाभ के लिए करते हैं।

श्रद्धालु नियत पूजा के एक भाग के तौर पर पूजा करने के लिए मन्दिर आते हैं, और बाकी समय “दर्शन करने”, अर्थात्, देवता को देखने के लिए आते हैं। वे भक्ति गीत भी गायेंगे, ईश्वर का नाम लेंगे, मन्दिर की दक्षिणावर्त परिक्रमा (प्रदक्षिणा) करेंगे और ध्यान लगायेंगे। 

मन्दिर की सबसे महत्वूर्ण गतिविधि नित्य पूजा है, जो दैनिक पूजा है, जिसमें विशेष क्रम और विधि से कर्मकाण्ड किये जाते हैं। यह ईश्वर के लिए किया जाता है, चाहे श्रद्धालु उपस्थित हों या न हों। इसी के कारण मन्दिर का अस्तित्व होता है। नित्य पूजा कर्मकाण्डों का एक समुच्चय होता है जिसमें पुजारी ईश्वर को आमन्त्रित करता है और एक अतिथि की भाँति व्यवहार करता है। यह संस्कार लगभग वैसे ही होते हैं जैसे किसी महत्वपूर्ण अतिथि को दिया जाने वाला सत्कार होता है। आगमों में कर्मकाण्डीय स्नान, सजावट, खाद्य चढ़ाने और अन्य सेवाओं के लिए नियम हैं। मन्दिरों में देवियों की भी पूजा, कुछ विशेष अवसरों पर और श्रद्धालुओं के निवेदन पर की जाती है। मन्दिर के वार्षिक उत्सव में समस्त समुदाय शामिल होता है और यह दूर-दूर के स्थानों से लोगों को आकृष्ट करता है।

संस्कृत शब्द नित्य के दो अर्थ हैं: दैनिक और साथ ही शाश्वत। एक सार्वजनिक संस्थान के रूप में, एक मन्दिर को “काम करना होता है भले ही कोई आगंतुक हो या न हो,” दुरैस्वामी कहती हैं। मन्दिर के नियम को देवता के अनुसार होना चाहिए न कि श्रद्धालुओं के अनुसार। बहुत से श्रद्धालु और मन्दिर प्रशासन, वह उल्लेख करती हैं, ऐसा व्यवहार करते प्रतीत होते हैं जैसे मन्दिर श्रद्धालुओं के लिए हो—और चन्दा एकत्र करने के लिए हो। राजस्व पर यह अतिरिक्त ध्यान अंग्रेज़ों के समय में शुरु हुआ, जब वे राजाओं को हटाकर मन्दिरों के प्रभारी बने, और यह अभी बहुत से सरकार द्वारा नियुक्त मन्दिर के प्रशासकों के मन में हावी रहता है।

The never-ending job of cleaning up. M. Amirtham/Dinodia

सफाई का कभी न समाप्त होने वाला कार्य। एम. अमृतम/डिनोडिया

मन्दिर का कार्यबल

अध्याय तीन में, जो कर्मचारियों पर है, दुरैस्वामी उल्लेख करती हैं कि वर्तमान सामान्य नामकरण प्रणाली—सरकारी “अधिकारी” और “सेवक”, जिसका अर्थ पुजारी और उसके सहायकों से है—उन सेवाओं की प्रकृति को नहीं दिखाता जो पुजारी करते हैं, न ही यह मन्दिर के परिवेश के परम्परागत दृश्य से मेल खाता है। उदाहरण के लिए, आगमों में आचार्य मुख्य पुजारी होता है, जो मन्दिर का कार्यकारी और आध्यात्मिक प्रमुख होता है, जो अन्य पुजारियों को रखता है और उनके काम सौंपता है। पल्लवों के समय में, पुजारी और अन्य जो किसी मन्दिर पर सेवा प्रदान करते थे, एक परिवार माने जाते थे।

हालांकि आधुनिक मन्दिर प्रशासन मन्दिर के कर्मचारियों को दो वर्गों में विभाजित करता है, अधिकारी और सेवक। बाद वाला—जिनमें आचार्य भी शामिल हैं—वे कर्मचारी हैं जिन्हें सरकार अपनी इच्छा से रख सकती है या निकाल सकती है। मन्दिर की पूरी कार्यप्रणाली को आचार्य की अधीनस्थता ने पतित और चौपट कर डाला है—जो मन्दिर का आध्यात्मिक और नौतिक केन्द्र होने की जगह—वित्तोन्मुक मुख्य प्रशासनिक अधिकारी हो गया है। 

दुरैस्वामी चोल काल के एक १०वीं शताब्दी के शिलालेख का उल्लेख करती हैं जिसमें एक विशेष दुर्गा मन्दिर में ६३ कर्मचारियों के पदों की सूची है। एक आचार्य, चार सहायक, नौ संगीतकार, २४ नृत्यांगनाएँ, दो माला बनाने वाले, तीन चौकीदार, एक मुनीम, एक कुम्हार, एक धोबी, एक नक्षत्रविज्ञानी, एक बढ़ई और फूल उगाने के लिए कुछ परिवार होते थे। 

तमिलनाडु के बड़े मन्दिरों में, ऐतिहासिक अभिलेखों के अनुसार, बहुत से पुजारी बारी-बारी स मुख्य पूजा कराते थे। ये बड़े मन्दिर ओडुवर्स (भक्ति गायक) भी रखते थे और आध्यात्मिक नाट्यशाला चलाते थे जहाँ कई नाट्य टोलियाँ प्रदर्शन करती थीं। 

जैसा कि पुस्तक में उल्लेख किया गया है, परम्परागत मन्दिर कार्यबल को पिरामिडे के रूप में दिखाया जा सकता है, जिसमें शीर्ष पर देवता होता था, उसके बाद वे जो मुख्य पूजा करते थे, उनके आसन्न सहायक, द्वितीयक पूजा सहायक, सामग्री आपूर्तिकर्ता, रखरखाव और प्रशासनिक सहायता। ज़्यादातर मन्दिर गायों को पालते हैं और उनकी देखरेख के लिए परिवारों को रखते हैं। आगमों ने कारीगरों—वास्तुकारों, राजमिस्त्रियों, मूर्तिकारों और बढ़ईयों—को भी महत्वपूर्ण भूमिकाएँ निभाने को दीं। 

Silpi at working carving a Ganesha statue for worship. Madhusudan Tawde/Dinodia

काम करते हुए शिल्पी पूजा के लिए गणेश की प्रतिमा गढ़ते हुए। मधुसूदन तावड़े/डिनोडिया

Preparing sweet laddu offerings at Tirupati Temple.

तिरुपति मन्दिर पर मीठे लड्डू का प्रसाद तैयार करते हुए।

आगम पुजारियों को पाँच श्रेणियों में बाँटते हैं—आचार्य, अर्चक (जो पूजा करते हैं), साधक (पूजा के सहायक), अलंकृत (सज्जा करने वाले), और वाचक (जाप करने वाले)। संगीतकार, प्रबन्धक और अन्य मन्दिर के कर्मचारियों को पास उनकी विशिष्टता के आधार पर विशेष पद होते हैं। वे सामान्य अर्थों में कर्मचारी नहीं होते थे। प्रत्येक ईश्वर की सेवा में था और उसका देवता के साथ विशेष सम्बन्ध था। देवता और उसकी पारस्परिक निर्भरता उन्हें एक साथ सम्बद्ध करती थी। यहाँ तक कि प्रबन्धकीय भूमिकाएँ भी मन्दिर में केवल इसलिए प्रशासकीय होती थीं कि जो भी मन्दिर में सेवा प्रदान करते हैं उन्हें उनके अधिकार का भाग प्राप्त हो।

आगम मन्दिर को कर्मचारियों को इस आधार पर श्रेणीबद्ध करते हैं कि वे वेतन पाते हैं या नहीं। रखरखाव और प्रबन्धन के कर्मचारी मासिक वेतन प्राप्त करते हैं। भुगतान की यह प्रणाली, उनकी सेवा की प्रकृति के कारण पुजारियों के लिए ठीक काम नहीं करती। आगम कहते हैं कि किसी आचार्य को पारिश्रमिक प्रदान करने के पीछे का एक भाव सम्मान करने और यह देखना है कि वह सन्तुष्ट है। यहीं से दक्षिणा की अवधारणा या सम्मानार्थ भुगतान की उद्भव होता है। भूमि या अनाज के अनुदान से पुजारियों और मन्दिर की सेवा में लगे अन्य लोगों की मूलभूत आर्थिक आवश्यकताएँ पूर्ण हो जाती हैं। एक कृषि अर्थव्यवस्था में जहाँ वस्तु-विनिमय व्यापार की प्रभावी प्रणाली थी, यह व्यवस्था बहुत अच्छे से काम करती थी।

पुजारी को उसकी सेवाओं के लिए स्वर्ण, वस्त्र या अन्य मूल्यवान वस्तुओं से सम्मानित करने की सलाह आगमों द्वारा दी जाती है। यह प्रणाली भारत में टूट गयी क्योंकि भारत विदेशी आक्रमणकारियों द्वारा सदियों की लूट के कारण गरीब हो गया। लोगों ने वह देना शुरु कर दिया जो कुछ भी वे दे सकते थे और जिससे भी वे भुगतान के तौर पर पुजारी को प्रसन्न कर सकते थे। इससे बहुत कम भुगतान वाले पुजारियों की पीढ़ियाँ, बहुत अधिक शिक्षित होने लगीं लेकिन घोर गरीबी में रहने लगीं।

इसके बाजवूद, हजारों पुजारी गाँव के मन्दिरों में सेवा देते रहे, जैसा कि वे आज के दिन तक करते हैं। वे सभी मानते थे कि देवता की सेवा करना उनका ईश्वर-प्रदत्त कर्तव्य है, भले ही उनको कितना भी धन मिलता हो। अभी कुछ ही समय पहले तक, पुजारियों के परिवार के ज़्यादातर युवा दूसरे कामों में नहीं जाते थे। यहाँ तक कि जब बाकी परिवार बेहतर सम्भावनाओं की तलाश में शहर चला जाता था, एक सदस्य गाँव में मन्दिर में पूजा करने के लिए रुक जाता था।

राजाओं के अन्तर्गत मन्दिर प्रबन्धन

एक अध्याय, जिसका शीर्षक “प्रशासन की भूमिका” है, विश्लेषण करता है कि भारत में राजा मन्दिरों का प्रबन्धन कैसे करते थे। बहुत से शासकों ने अपनी विरासत के हिस्से के रूप में शानदार मन्दिर बनवाये। जब वे नया क्षेत्र जीतते थे, तो राजा स्थानीय लोगों को प्रसन्न करने के लिए वहाँ के देवता की पूजा करते थे। फिर भी, मन्दिर आपने आप में राजनीतिक तौर पर उदासीन बने रहे। 

आगम भूमि के शासक को (किसी विशेष राजा को नहीं) मन्दिर की सुरक्षा और सहायता करने के लिए कहते हैं। उसे बहुत से कर्तव्य प्रदान किये गये हैं: मन्दिर की शुद्धता को बनाये रखना, इसकी परम्परा की रक्षा करना, संसाधन प्रदान करना और मन्दिर के ढाँचे की सुरक्षा और रखरखाव करना। राजा को मन्दिर को प्रदान की गयी भूमि पर इसके अधिकारों को लागू करवाना चाहिए। फसल के हिस्से की फसल को एकत्र करना और योग्य लोगों में वितरित करना राजा का कर्तव्य है।

A student priest

एक शिष्य पुजारी

Temple dancers

मन्दिर के नर्तक

मन्दिर की स्थापना के समय एक शिक्षित मुख्य पुजारी की नियुक्ति करना और वंशानुगत उत्तराधिकार प्रारम्भ करना राजा का दायित्व था। राजा को यह भी सुनिश्चित करना था कि मन्दिर सभी कर्मकाण्डों को सही सामग्री का प्रयोग करके सही समय पर करता है। यह देखना उनका कर्तव्य था कि विशेष उत्सव ठीक से मनाये जाते थे और मन्दिर परिसर की स्वच्छता, शुद्धता और पवित्रता बनाकर रखी जाती थी। इसी तरह, राजा को मन्दिर में पूजा के लिए सामग्री और यन्त्र की उचित आपूर्ति बनाये रखनी थी।

राजा की दूसरी प्रमुख जिम्मेदारियों में मन्दिर को धन प्रदान करना (चाहे प्रत्यक्ष रूप से या अनुदानों के माध्यम से), देवता और मन्दिर के ढाँचे की शत्रुओं, चोरों और बर्बरों से रक्षा करना, मन्दिर के वित्त की जाँच करना और इसकी आय से सम्बन्धित विवादों का निपटान करना शामिल था।

इस पुस्तक में उद्धृत अभिलेखीय स्रोत इशारा करते हैं कि आगम के इन आदेशों का मध्य युग में बहुत अधिक पालन किया जाता था। आगम देवता को जीवित चीज़ और मन्दिर को उसका घर मानते थे। जैसे कि एक व्यवसाय के स्वामी के पास एक प्रतिनिधि होता है, वैसा ही देवता के पास भी होता है। शिव के मन्दिर में, भगवान चन्देश्वर (bit.ly/Chandeshvara) शिव, जो स्वामी थे; के विधिक प्रतिनिधि थे। मध्यकालीन मन्दिर, मन्दिर की भूमि की खरीद, पट्टा या विक्रय और अन्य वित्तीय मामलों का संचालन चन्देश्वर के नाम से करते थे। आधुनिक समय में, ऐसा लेनदेन निवास करने वाले देवता के नाम से होता है, जिसे न्यायालय एक विधिक “व्यक्ति” मानता है।

राजा सुनिश्चित करते थे कि मन्दिर को अनुदान में प्राप्त होने वाली सम्पत्तियों से नियमित आय प्राप्त करता रहे। जो लो मन्दिर को भूमि को ग़ैरक़ानूनी तरीके से कब्जा कर लेते थे या इसकी धन की ठगी करते थे, उन्हें दण्ड दिया जाता था। यह भारत के वर्तमान मामलों की स्थिति के ठीक विपरीत जाता है। हिन्दू समूह आरोप लगाते हैं कि सरकारें नियमित रूप से मन्दिरों की भूमि के अतिक्रमण के हजारों मामलों से आँख मूँद लेती है। कुछ सरकारें, विशेष रूप से तमिलनाडु, आन्ध्र प्रदेश और केरल की सरकारें, मन्दिर की भूमि और आभूषण को बेचने की हड़बड़ी में दिखाई देती हैं। बहुत से हिन्दू मानते हैं कि इन क़दमों के पीछे एक तीव्र हिन्दू-विरोधी पूर्वाग्रह है, क्योंकि सरकारें अन्य धर्मों की सम्पत्तियों को नहीं छूती हैं।

आधुनिक युग में संक्रमण

पाँचवा, जो पुस्तक का अन्तिम और सबसे महत्वपूर्ण अध्याय है, उसका शीर्षक है “वर्तमान प्रबन्धन की प्रणालियाँ”। इसकी शुरुआत यह बताने के साथ होती है कि विजयनगर साम्राज्य के शासक दक्षिण भारत में मन्दिरों के अन्तिम बड़े संरक्षक थे। बहमानी सुल्तानों द्वारा साम्राज्य को पराजित करने और इसकी राजधानी के शहर को १५६५ में नष्ट करने के बाद, बहुत से स्थानीय शासकों ने उन मन्दिरों का संरक्षण किया जिन्हें आक्रमणकारियों ने नष्ट नहीं किया था। 

जब अंग्रेजों ने इन स्थानीय शासको से सत्ता ली, तो उन्होंने मन्दिरों को राजस्व के लाभप्रद स्रोत के रूप में देखा। पहले, १९२५ में, उन्होंने बड़े मन्दिरों का नियन्त्रण ले लिया। हिन्दू नेताओं के विरोध के बीच, उन्होंने हिन्दू धार्मिक स्थलों की देखरेख के लिए हिन्दू धार्मिक और धर्मार्थ बन्दोबस्ती बोर्ड की स्थापना की। १९४२ में, एक अनाधिकारिक समिति ने सुझाव दिया कि बोर्ड को सरकारी प्रशासन के अन्तर्गत होना चाहिए।

विडम्बना है कि स्वतन्त्रता के बाद १९५१ में भारत की संघीय सरकार ने हिन्दू धर्म एवं धर्मार्थ बन्दोबस्ती अधिनियम पारित करके मन्दिर का अधिग्रहण जारी रखा। तब, १९५९ में, तमिलनाडु की सरकार ने अपना ख़ुद का हिन्दू धर्म एवं धर्मार्थ बन्दोबस्ती अधिनियम बनाया और एचआर एवं सीई विभाग की स्थापना की। आज ४०,००० से अधिक मन्दिर, जिसमें ५६ हिन्दू मठ, १,९१० दान में प्राप्त सम्पत्तियाँ और १७ जैन मन्दिर तमिलनाडु सरकार के प्रशासन में हैं जिनके वित्त और भू सम्पत्ति पर उसका पूरा नियन्त्रण है। कोई भी मुस्लिम (आबादी का ५.८६%) या इसाई (६.१२%) धार्मिक संस्था भारत के किसी राज्य में सरकार के नियन्त्रण में नहीं आती।

The local temple whose land these farmers work gets a share of the harvest. Shutterstock

स्थानीय मन्दिर, जिसकी भूमि पर ये किसान खेती करते हैं, उसे फसल का एक भाग प्राप्त होता है। शटरस्टॉक

उदाहरण के लिए, अमेरिका में किसी भी सरकार के लिए—चाहे वह राज्य की हो या संघीय—किसी धार्मिक संस्था पर नियन्त्रण रखना सोचने से परे होगा। यह अमरीकियों को भारत की स्थिति समझाना कठिन बना देता है, क्योंकि सहजता से भरोसा नहीं कर सकते कि ऐसी चीज हो सकती है।

हिन्दू धार्मिक संस्थाओं को उनके राजस्व प्रतिवेदन के आधार पर चार श्रेणियों में रखा गया है। us$१३,३००, से अधिक वार्षिक राजस्व वाले १८२ मन्दिर पहली श्रेणी में आते हैं। $२,६६० से अधिक लेकिन $१३,३०० से कम वाले ४९८ मन्दिर दूसरे समूह में आते हैं। तीसरी श्रेणी में ३,३३१ मन्दिर हैं जिनकी आय $१३३ से $२,६६० है। $१३३ से कम आय वाले ३४,४७० मन्दिर अन्तिम समूह में हैं। विभिन्न श्रेणियों के अधिकारी इनका प्रबन्धन करते हैं। जॉइंट कमिश्नर के पद वाला अधिकारी सबसे बड़े और सबसे धनी मन्दिरों का प्रमुख होता है।

तमिलनाडु का एचआर और सीई विभाग हर बड़े मन्दिर के लिए न्यासी बोर्ड के दो सदस्य नियुक्त करता है। यह विवादास्पद रहा है। आन्ध्र प्रदेश की सरकारों ने, जिसमें वर्तमान सरकार भी शामिल है, ग़ैर-हिन्दुओं तक को तिरुमल तिरुपति वेंकटेश्वर देवस्थानम ट्रस्ट बोर्ड में नियुक्त कर दिया है। यह विश्व का सबसे धनी हिन्दू मन्दिर माना जाता है, जिसकी वार्षिक आय $१६ करोड़ है। मन्दिर के मामलों में सरकार के हस्तक्षेप ने अनुयायियों को नाराज कर दिया है। यह कुछ अधिक आय वाले मन्दिरो के सूक्ष्म प्रबन्धन करने और बाकियों पर ध्यान न देने की मानसिकता को दर्शाता है।

तमिलनाडु में २०१२-१३ में मन्दिरों के कुल बजट में १६.६ मिलियन डॉलर की कुल राशि शामिल था, जो बड़े मन्दिरों की राशि का प्रयोग करके तैयार किया गया था। १.०६ मिलियन डॉलर का लोगों का दान, सरकार ८ मिलियन डॉलर का सरकारी अनुदान और ४ मिलियन डॉलर का पुनरुद्धार के अनुदान से बचे हुए बजट का निर्माण होता था। बोर्ड ने उस साल केवल १०.९ मिलियन का खर्च किया था। बहुत से लोग आरोप लगाते हैं कि सरकार अरबों नहीं तो करोड़ों रुपये मन्दिर के चन्दे से प्राप्त करती है लेकिन वास्तविक एकत्र राशि का खुलासा कभी नहीं करती है।

चेन्नई स्थित मन्दिर पूजा समाज ने कहा कि तमिल नाडु के मन्दिरों के पास लगभाग ५००,००० एकड़ कृषि और अन्य भूमि है, साथ ही २२,००० इमारतें और ३३,००० वाणिज्यिक और निवास स्थल हैं। इन सभी से, एचआरएण्डसीई विभाग प्रति वर्ष मात्र ७.५ मिलियन डॉलर एकत्र कर पाता है। यदि सरकार मन्दिर का पूरा धन एकत्र कर पाती, तो आय ८.०८ बिलियन से अधिक होती। समाज यह भी कहता है, “१९८६ से २००५ के बीच लोगों ने हिन्दू मन्दिरों की ४७,००० एकड़ से अधिक भूमि और १० मिलियन वर्ग फ़ीट से अधिक प्लॉट पर कब्जा कर लिया।”

पुस्तक में चार मामलों का अध्ययन शामिल किया गया है, जिसमें तीन तमिलनाडु से और एक अमेरिका से है। इससे मन्दिर प्रबन्धन की वर्तमान स्थिति को लेकर कुछ विचारोत्तेजक आँकड़े मिलते हैं। डॉ. दुरैस्वामी ने स्वयं तिरुमणिसाई स्थित मनोनुकूलेश्वर मन्दिर, तिरुकड़ैयर स्थित अमृतघटेश्वर मन्दिर और तिरुवन्नामलाई स्थित अरुणाचलेश्वर मन्दिर का अध्ययन किया है। सभी कमिका आगम का पालन करते हैं। मनोनुकूलेस्वर मन्दिर में दिन में दो बार पूजा होती है और यह मुख्य पुजारी समेत सात लोगों को रोज़गार देता है। अमृतघटेश्वर और अरुणाचलेश्वर मन्दिर, दोनों दिन में छः बार पूजा की समय-सारणी का पालन करते हैं और उनके पास क्रमशः ५५ और २०० से अधिक कर्मचारी हैं। साथ ही उनके पास हर दिन बहुत से लोग आते हैं, और उनके दान पात्रों में एकत्र धन उनकी आय का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है।

Flower sellers

फूल बेचने वाले

इन मामलों के अध्ययन से एक उल्लेखनीय तथ्य सामने आता है। पुजारी और रसोइयों को हर माह क्रमशः १३ और ३९ डॉलर का मानदेय मिलता है, जबकि मन्दिर के सुरक्षा कर्मियों को हर मार २४० से २६६ डॉलर प्राप्त होते हैं। यह अत्यन्त कम भुगतान मन्दिर के पुजारियो के सामने आज बड़ा मुद्दा है। कुछ पुजारियों को वर्षों से भुगतान प्राप्त नहीं हुआ है। पूजा करने वाले कर्मचारियों की यह निर्धनता उन्हें अपने परिवार का पेट पालने के लिए आय में वृद्धि के तरीके खोजने के लिए बाध्य करती है और अगली पीढ़ी को अपने पारम्परिक पेशे को आगे बढ़ाने से हतोत्साहित करती है।

मन्दिर की कार्यप्रणाली को समझने के लिए, लेखिका ने पुजारियों के विचार लिये। उनकी रिपोर्टें उनकी दमघोंटू आर्थिक स्थिति को स्पष्ट रूप से दर्शाती हैं। केवल बड़े शहरी मन्दिरों में पुजारियों की छोटी संख्या ही फल-फूल रही है। अन्य हजारों निर्धनता में जी रहे हैं। लेखक बताता है कि पारम्परिक आदिशैव समुदाय की सामान्य भावन शिव को अपने परिवार के बड़े के तौर पर सम्मान देने की और उनकी पूजा करते रहने की रही है। मौजूदा स्थिति में, फिर भी, युवा पीढ़ी भ्रमित हो सकती है और बेहतर आय वाले पेशों की ओर मुड़ सकती है।

आगम, दक्षिणा की अवधारणा को स्वीकृति देते हैं और उसे प्रोत्साहित करते हैं—जो श्रद्धालु द्वारा पुजारी को प्रत्यक्ष रूप में उसकी सेवाओं के प्रति कृतज्ञता के रूप में दी गयी राशि है। बहुत से मन्दिरों में, जो तमिलनाडु एचआरएण्डसीई बोर्ड द्वारा प्रबन्धित हैं, प्रमुख स्थलों पर बोर्ड लगे हुए हैं जो श्रद्धालुओं को पुजारियों को पैसा न देने के लिए कहते हैं। सरकार द्वारा जनता को इस तरह का निर्देश देना पुजारियों को नीचा दिखाता है और उन्हें शक्तिहीन करता है तथा उन्हें गहराई से चोट पहुँचाता है। यह उनकी भूमिका को कम कर देता है और उनका मनोबल कम करता है। मन्दिर को गायक, संगीतकार और मूर्तिकार भी निर्धनता और असम्मान की ऐसी ही स्थिति के गवाह हैं। परिणामस्वरूप, इन समुदायों की युवा पीढ़ी अपने पारम्परिक पेशों में रुचि खो रही है।

मन्दिर की सम्पत्तियों से बकाया किराया वसूल करना और कब्जेदारों से भूमि वापस लेना मन्दिर और उसके कर्मचारियोंकी आर्थिक स्थिति सुधारने के लिए एक बुनियादी क़दम है। लेखिका लोगों से यह समझने की अपील करती हैं कि मन्दिर द्वारा प्रदान की जाने वाली भोजन, विवाहों और अन्य सुविधाएँ मन्दिर द्वारा एकत्र किये गये पैसों से मिलते हैं। वे सरकार द्वारा मुफ़्त में नहीं प्रदान की जातीं। डॉ. दुरैस्वामी कहती हैं कि यह समझना ग़लत है कि धर्मनरपेक्ष सरकार अपने धन को हिन्दू मन्दिरों पर खर्च करती हैं। सरकार इन सामाजिक कार्यक्रमों पर मन्दिरों से प्राप्त होने वाली आय का बस एक छोटा भाग खर्च करती है।

Madurai Meenakshi priests with the parade Deities. Rupinder Khullar/Dinodia

मदुरै मीनाक्षी के पुजारी देवताओं के जुलूस के साथ। रुपिन्दर खुल्लर /डिनोडिया

भविष्य के लिए सुझाव

लेखिका भविष्य के लिए बहुत से विशिष्ट सुझाव देती हैं। सबसे पहले, केवल उनके राजस्व को देखने की बजाय, हमने मन्दिरों के वर्गीकरण के लिए आकार, देवताओं की संख्या, प्राचीनता और ऐतिहासिक महत्व का प्रयोग करना चाहिए। मन्दिरों को थोड़ी सी स्थानीय आय से सहायता करने के लिए, वह संसाधनों को एकत्र करने का और जहाँ कहीं आवश्यकता हो, वहाँ पर आवंटित करने का प्रस्ताव देती हैं। यह कम राजस्व वाले प्राचीन और महान मन्दिरों की सहायता करेगा, जिससे कम से कम सभी मन्दिरों में एक दैनिक पूजा हो पायेगी। वह सलाह देती हैं कि सरकारें अपना “राजस्व को अधिकतम करने” का दृष्टिकोण अपनायें और समुदाय को मन्दिर के लाभ को प्राथमिकता में रखने के लिए समग्र प्रबन्धन परिप्रेक्ष्य अपनायें।

पुस्तक में एक शक्तिशाली बात है कि प्रत्येक मन्दिर में, कम से कम दिन में तीन बार पूजा होनी चाहिए—सुबह, दोपहर और शाम। पुजारियों की कई सालों की दीक्षा; संगीतकारों तथा गायकों को सघन प्रशिक्षण की आवश्यकता होती है। सरकार और हिन्दू समाज को समग्रता में उनकी पारम्परिक शिक्षा को मान्यता और सम्मान देना चाहिए।

मन्दिरों को जनता को समयानुकूल आध्यात्मिक मूल्यों को शिक्षा देने के लिए अध्यापन केन्द्र चलाने चाहिए। मन्दिरों में होने वाले प्रवचन, कहानियाँ, ध्यान, योग और भजन लोगों को एक धार्मिक जीवन जीने में सहायता करते हैं। हर मन्दिर के पास समुदाय को शामिल करने के लिए आध्यात्मिक कार्यक्रमों का एक कैलेण्डर होना चाहिए।

वेदों और आगमों में पाण्डित्य भरा हुआ है। मन्दिरों को शोध और संसाधन केन्द्रों की स्थापना करके इस अन्तर्दृष्टि का अध्ययन और प्रसार करना चाहिए। आस-पास के समुदाय की सहायता करने वाले कार्यक्रम मन्दिरों को प्रमुख सामाजिक केन्द्र बना देंगे जो वे पहले थे।

Priests perform the daily ritual bath to Murugan. M. Amirtham/Dinodia

पुजारी मुरुगन को स्नान  करने के लिए दैनिक कर्मकाण्ड कर रहे हैं। एम. अमृतम/डिनोडिया

इतिहास दर्शाता है कि जैसे-जैसे मन्दिर विकसित हुए, कला आगे बढ़ी। मन्दिरों को मन्दिर की कला के विशिष्ट शैली के विकास के लिए शिल्पकारों को रखना पड़ता था। मन्दिर द्वारा संचालित सांस्कृतिक केन्द्र, जहाँ विभिन्न कलाओं और शिल्पों के विशेषज्ञ जुट सकते हैं, कार्य कर सकते हैं, प्रदर्शन कर सकते हैं और अपने विचारों को साझा कर सकते हैं, अपने आस-पास के समुदाय को पोषित कर सकता है।

मन्दिरों की संरचना, मूर्तियों, अभिलेखों, चित्रों और भित्तिचित्रों का संरक्षण करना हमारे भविष्य की रक्षा के लिए किया गया निवेश है। सभी मरम्मत, पुनर्निर्माण या सुधार कार्यों को मन्दिर की प्राचीनता और वास्तुकला की सुरक्षा करने के लिए एक अच्छी तरह से निर्मित मानक का पालन करना चाहिए। मन्दिर के कार्यबल पेशे के अनुसार, उनकी शिक्षा और प्रशिक्षण के आधार पर नक्शा तैयार करने के लिए अध्ययन की आवश्यकता है। 

डॉ. दुरैस्वामी लिखती हैं कि हम मन्दिरों का प्रबन्धन उनके नाम, स्थान, प्राचीनता, आकार और देवताओं के नाम और संख्या के डेटाबेस के आधार पर बेहतर ढंग से कर सकते हैं। मन्दिर के तालाब, मीनारों, कलाकृतियाँ, पूजा का समय और वार्षिक बजट सभी को शामिल किया जा सकता है। एकत्र और व्यय राशि की पूरी जानकारी का खुलासा करना और उसे सभी मन्दिरों में दर्शाना पारदर्शिता और जनता की भागीदारी को बढ़ावा देगा। 

पूजा की गुणवत्ता और शुद्धता को प्रबन्धकीय कर्मचारियों के मूल्यांकन में सबसे ऊपर रखना होगा। उसके बाद दैनिक आय, बकाया किरायों का संग्रह, कब्जा की गयी भूमि को फिर से प्राप्त करना, मन्दिर और इसकी परम्पराओं की रक्षा पर विचार करना होगा—जिनमें से सभी पूजा में सहायक होती हैं। कर्मकाण्ड, पारम्परिक तमिल भक्ति गीतों का गायन, संगीत, नृत्य, माला बनाना, खाना पकाना—ये सब वे विशिष्ट दक्षताएँ हैं जिसकी मन्दिर को आवश्यकता होती है। संसाधनों का अभाव और उदासीनता इन अनुशासनों के क्षय का कारण बनी है। 

वर्तमान सरकारें मन्दिरों पर अपने नियन्त्रण को यह कहकर वैध ठहराने की कोशिश कर रही हैं कि वे बस राजा का स्थान ले रही हैं। लेकिन राजा का स्थान लेने वाली इकाई को आगमों और मन्दिर के प्रति श्रद्धा रखनी होगी। मन्दिरों के फलने-फूलने के लिए हमें आज वैसे ही वातावरण की आवश्यकता है।

मन्दिर का कोई भी ऐसा प्रशासक नहीं नियुक्त होना चाहिए जो मन्दिर की पूजा में विश्वास नहीं करता है। प्रशासकों को मन्दिर के ब्रह्माण्ड पर लाभदायक प्रभाव में आस्था रखनी चाहिए और उन लोगों का सम्मान करना चाहिए जो मन्दिर की सेवा करते हैं और वहाँ आते हैं। उन्हें आगमों को समझना और उनका सम्मान करना चाहिए और उहें मन्दिर की परम्परा का संरक्षण और रक्षा करनी चाहिए।

वर्तमान विधिक सिद्धांत यह है कि मन्दिर का प्रबन्धन धार्मिक न होकर, एक धर्मनिरपेक्ष कार्य है। यह दृष्टिकोण आगम के सुझावों के विपरीत है। जिस तरह के मामले आज आते हैं, कोई भी जो हिन्दू नहीं है, या जो बस अपने को हिन्दू घोषित ही कर देता है, हिन्दू मन्दिरों का प्रशासक नियुक्त किया जा सकता है। इसे अवश्य बदलना चाहिए। वे लोग जो हिन्दू नहीं हैं या मन्दिर की पूजा में विश्वास नहीं करते उन्हें मन्दिर के कार्यबल में नहीं होना चाहिए। निश्चित रूप से, लेखक स्पष्टता से कहता है, कोई भी कल्पना नहीं कर सकता कि ऐसा कोई व्यक्ति जो देवता में आस्था नहीं रखता, आगमों का पालन करेगा या मन्दिर की रक्षा करेगा।

निष्कर्ष

Devotees absorb the profound vibrations of the worship at Nattukotai Chettiar Temple in Malaysia. Shutterstock

भक्त मलेशिया के नट्टकोटई चेट्टियार मन्दिर की गहन तरंगों को आत्मसात करते हुए। शटरस्टॉक

डॉ दीपा दुरैस्वामी लोगों से अपने क्षेत्र के मन्दिरों को गोद लेने का अनुरोध करती हैं। यह अनिवार्य है कि समुदाय के सदस्य विशेष कार्यक्रमों और त्यौहारों के दौरान सहायता के लिए स्वयंसेवा करें और मन्दिर के प्रशासन में और इसे आगे बढ़ाने में सहायता करें। वह आशा करती हैं कि हिन्दू धर्म में विश्वास करने वाले लोग और परम्पराओं का सम्मान करने वाले लोग आगमों का अध्ययन करेंगे, क्योंकि बहुत अधिक गहन अध्ययनों की आवश्यकता है। हमारे आस-पास के हजारों सुन्दर मन्दिर हमारे शानदार अतीत की याद दिलाते हैं। वे हमारे भविष्य को उज्ज्वल और शानदार बनाने की अन्तहीन सम्भावनाओं के सूचक भी हैं। हमारे मन्दिर को बनाने और इसकी रक्षा करने के लिए इतिहास में किये गये और आज भी पुजारियों, मूर्तिकारों, संगीतकारों, कलाकारों, गायकों और अन्य कर्मियों द्वारा किये जा रहे सर्वोच्च समर्पण और बलिदान जो हमें कार्य करने के लिए प्रेरित करते रहेंगे।


लेखक के बारे में

विद्यासागर तोंतलापुर, एक सॉफ्टवेयर इंजीनियर जो पत्रकार बन गये, सुपीरियर, कोलोराडो में रहते हैं। वह सनातन धर्म, तकनीक और समाज पर इसके प्रभाव में गहन रुचि रखते हैं।डॉ. दुरैस्वामी अपने पहले अध्याय की शुरुआत शैव परम्परा और इसकी आन्तरिक परम्परा का संक्षिप्त और स्पष्ट परिचय देने से करती हैं, जैसा कि शैव आगमों में और ऐतिहासिक शोध में मिलता है। वह अपनी पुस्तक के शीर्षक के पीछे के तर्क समझाती हैं तथा अतीत और वर्तमान के मन्दिर प्रबन्धन, साथ ही प्रबन्धन की उन वर्तमान धाराओं को समझाती हैं जिन्हें उन्होंने मन्दिर प्रबन्धन की अपनी समझ को बनाने में उपयोगी पाया है।विद्यासागर तोंतलापुर, एक सॉफ्टवेयर इंजीनियर जो पत्रकार बन गये, सुपीरियर, कोलोराडो में रहते हैं। वह सनातन धर्म, तकनीक और समाज पर इसके प्रभाव में गहन रुचि रखते हैं।


पुस्तक समीक्षा

सिद्धार्थ श्रीराम, सिंगापुर

डॉ. दुरैस्वामी अपने पहले अध्याय की शुरुआत शैव परम्परा और इसकी आन्तरिक परम्परा का संक्षिप्त और स्पष्ट परिचय देने से करती हैं, जैसा कि शैव आगमों में और ऐतिहासिक शोध में मिलता है। वह अपनी पुस्तक के शीर्षक के पीछे के तर्क समझाती हैं तथा अतीत और वर्तमान के मन्दिर प्रबन्धन, साथ ही प्रबन्धन की उन वर्तमान धाराओं को समझाती हैं जिन्हें उन्होंने मन्दिर प्रबन्धन की अपनी समझ को बनाने में उपयोगी पाया है।

अध्याय दो और उससे आगे, पुस्तक परम्परागत मन्दिर प्रशासक, या धर्मकर्ता के लिए एक सच्ची संक्षिप्त नियमावली वन जाती है। डॉ. दुरैस्वामी हमें दैनिक कर्मकाण्ड की समयावली में गहरे ले चलती हैं, जिसकी शुरुआत प्रतिष्ठा से होती है। मन्दिर के दिन की शुरुआत इस स्थापना की क्रिया के साथ होती है, जिसमें सर्वव्यापी देवता पर “केन्द्रित” किया जाता है और उसे मन्दिर में विशिष्ट रूपों और नामों से स्थापित किया जाता है। उसके बाद लेखिका विभिन्न प्रकार की पूजा की चर्चा करती हैं। वह आध्यात्मिक अनुच्छेदों को प्रकाश में लाती हैं जो मन्दिरों को ९ तरह से वर्गीकृत करते हैं, जिसमें सबसे साधारण से लेकर सबसे पूर्ण तक शामिल है, जिसका आधार संसाधनों के स्तर से लेकर दैनिक पूजा के दिनचर्या की पूर्णता है। 

इस पुस्तक की एक मुख्य विशेषता है प्रथम स्रोतों से प्रचुर मात्रा में उद्धरण हैं, जैसे स्वयं आगम, जो इसमें प्रमाणिकता का तत्व जोड़ देते हैं। हिन्दू विमर्श में एक प्रमुख समस्या विशिष्ट विश्वासों और अभ्यासों के लिए स्रोत प्रदान न कर पाना है। यह पुस्तक हिन्दुओं को यह विश्वास दिलाती है कि भले ही उन्होंने आगमिक मन्दिरों के बहुत से पहलुओ को बिना प्रमाण के मान लिया हो, इनकी जड़ें एक आध्यात्मिक परम्परा में हैं जो दस शताब्दियों से अधिक पीछे तक जाती है।

अध्याय तीन में, डॉ. दुरैस्वामी मन्दिर के कार्यबल की चर्चा करती हैं। वह मन्दिर के संचालन में लगे लोगों के लिए प्रयोग होने वाले मातृभाषा के शब्दों परिचित कराते हुए शुरुआत करती हैं। उसके बाद वह, इनमें से प्रत्येक सदस्य का प्राचीन लेखों में उल्लेख का उद्धरण देते हुए ऐतिहासिक पृष्ठभूमिक का समृद्ध सर्वे करती हैं, जिनमें आचार्य, साधक, दैवज्ञ (मन्दिर का ज्योतिषी), परिचारक (वह सहायक जो देवता के लिए भोजन बनाने जैसी सेवाएँ प्रदान करता है), शिल्पी कारीगर, पवित्र तमिल गीतों के ओडुवर गायक और माली, जो मन्दिर को कर्मकाण्ड करने के लिए पवित्र फूल और पत्तियाँ देते थे। 

हम मन्दिर के शिलालेखों से डॉ. दुरैस्वामी के प्रचुर उद्धरणों से यह जानते हैं कि ये सभी समूह जो राजा द्वारा भूमि देकर और अन्य तरह के पारिश्रमिक के जरिये बनाकर रखे गये थे। उन्होंने आगमों और शिलालेखों पर आधारित विभिन्न वर्गों के मन्दिर के कर्मचारियों के पारिश्रमिक का एक विस्तृत सर्वे पेश किया है।

अध्याय चार मन्दिर के विभिन्न सेवकों के कर्तव्यों की चर्चा करता है। ऐतिहासिक रूप से, तमिलनाडु में बड़े मन्दिरों का प्रशासक राजा था। राजा को सुनिश्चित करना पड़ता था कि मन्दिर नियमित तौर पर आगमों का अनुपालन कर रहे हैं, जिनकी शुरुआत इसके कर्मकाण्डों की शुरुआत के साथ होती थी। राजा ही योग्या आचार्यों आर अर्चकों की नियुक्ति करता था, और पुजारी तथा अन्य समूहों के वेतन का ध्यान रखता था, जैसा कि अध्याय तीन में बताया गया है। अन्य मुख्य जिम्मेदारियों में वार्षिक त्यौहार की तैयारी (महोत्सव), मन्दिर का व्यय, समय पर पुनर्प्रतिष्ठा और पूजा में किसी कमी और मन्दिर की भौतिक संरचना में किसी कमी या नुकसान के लिए प्रायश्चित के अनुष्ठान शामिल हैं। भले ही राजा का स्थान बहुत समय पहले ही सरकारी या निजी प्रशासनिक बोर्ड ले चुके हैं, जिम्मेदारियाँ वही हैं।

उन करों का विवरण देने के बाद जो मन्दिर को उसकी जमीनों और दानों से प्राप्त होते थे, डॉ. दुरैस्वामी पुजारियों के पदानुक्रम और मन्दिर के कर्मचारियों के पदानुक्रम की एक रूपरेखा प्रदान करती हैं, जिसका आधार फिर से आगमों के उद्धरणों को बनाया गया है। मन्दिर के सेवकों के सभी स्तरों और वर्गों को शामिल किया गया है।

अध्याय पाँच मन्दिर के प्रशासन की मौजूदा वास्तविकता की चर्चा करता है और इसी तरह से दिखने वाले एक सांगठनिक ढाँचे को पुनर्प्रस्तुत करता है। सतह पर, राजा को ढाँचे से हटाने के सिवाय, ऐसा लग सकता है कि ढाँचे में कुछ बड़े परिवर्तन हैं। यह सच्चाई से बहुत दूर है, जैसा कि डॉ. दुरैस्वामी उल्लेख करती हैं जब वह हमें असली आगम मन्दिरों की मामलों के अध्ययन से परिचित कराती हैं। वह उनके दैनिक दिनचर्या, उनके कार्यबल, प्रबन्धन और वित्त का सर्वे करती हैं, और आज के समय में मन्दिर के सेवकों के विभिन्न हिस्सों के सामने की समस्याओं की जाँच-पड़ताल करती हैं। इस अध्याय में, डॉ. दुरैस्वामी उन सुधारों को लेकर अपने सुझाव भी देती हैं जिन्हें आज के मन्दिरों में किया जा सकता है। 

छठें और अन्तिम अध्याय में, लेखिका पिछले पाँच अध्यायों की चर्चा का सार प्रस्तुत करती हैं और मन्दिर की दृष्टि, लक्ष्य और संसाधनों को रेखांकित करती हैं। कुछ लोगों को मन्दिरों को एक दृष्टि, लक्ष्य और संसाधनों वाली संस्था के रूप में देखना “आधुनिक” या “अनुपयुक्त” लग सकता है। लेकिन यह अनिवार्य हो गया है कि हम ऐसा करें, क्योंकि बहुत से हिन्दू आजकल प्रकृति और आगम मन्दिरों की भूमिका की उपेक्षा करते हैं। आगम के एक छात्र के रूप में, विशेष तौर पर मैं लेखिका के इस अवलोकन की प्रशंसा करता हूँ कि मन्दिर की मुख्य पूजा प्रारर्थ पूजा (दिन के नियत समयों पर आचार्य द्वारा की जाने वाली पूजा) है न कि काम्य पूजा (मन्दिर आने वाले विशिष्ट व्यक्तियों के लिए पूजा)। हालांकि दूसरी पूजा को मन्दिर में करने की अनुमति है, लेकिन यह पहली पूजा की कीमत पर नहीं हो सकती; और पहली पूजा को दूसरी पूजा के लिए कभी भी छोटा नहीं करना चाहिए।

इस सन्दर्भ में, डॉ. दुरैस्वामी ने जो पिछले अध्याय में लिखा है उसे संक्षेपीकृत करते हुए, दैनिक पूजा बिना किसी बाधा के प्रति दिन करनी चाहिए, भले ही मन्दिर में एक भी श्रद्धालु न दिखायी दे। हिन्दुओं के बीच में इस बात की एक स्पष्ट समझ कि आगमिक मन्दिर क्या हैं वास्तव में इन मन्दिरों को “रास्ते पर वापस लाने” की लम्बी प्रक्रिया का पहला और महत्वपूर्ण चरण है।

यह मुझे डॉ. दुरैस्वामी के सबसे महत्वपूर्ण बातों पर ले आता है। मन्दिर का पालन-पोषण लोगों द्वारा होना चाहिए, हाँ। लेकिन यह भी उतना ही महत्वपूर्ण है कि मन्दिर भी लोगों का पालन-पोषण करता है। यह समीक्षा आगमिक मन्दिरों के लोगों के सामाजिक और आर्थिक जीवन में स्थान को देखने के साथ शुरु हुई। आगम मन्दिरों को वह सही जगह फिर से वापस पाने और हिन्दुओं की पीढ़ियों को इसकी समृद्ध और सुन्दर परम्परा से रोमांचित रखने की ज़रूरत है। उस स्थान को पुनः पाने के लिए, मन्दिर को हिन्दुओं के महत्वपूर्ण क्षेत्रों जैसे स्वास्थ्य, शिक्षा और सामाजिक कल्याण में सहायता करने के परम्परागत भूमिका निभाने की अनुमति मिलनी चाहिए, जैसा कि यह कई सदियों से करता रहा है। 

डॉ. दुरैस्वामी के साथ, मुझे उम्मीद है कि आगम मन्दिर, जो हिन्दू विरासत के अमूल्य भाग हैं, एक बार फिर से हिन्दू जीवन के केन्द्र बिन्दु बन जायेंगे। मैं उनके साथ ही इंडिक एकेडमी को अंग्रेजी में एक सुलभ पुस्तक के माध्यम से रोशनी में लाने के लिए धन्यवाद देता हूँ। 


सिद्धार्थ श्रीराम सिंगापुर के एक शैव हिन्दू हैं, जो एक तैत्तरीयक हैं और भगवान सद्यज्योति, नारायणकण्ठ, रामकण्ठ और अघोरशिव द्वारा बतायी गयी शैव सिद्धान्त शिक्षाओं के छात्र हैं। वह तिरज्ञानसम्बन्धर के भक्त हैं।