The Changing Face of Dharma in America
दीपावली का नृत्य: न्यू यार्क में हिन्दू युवतियाँ हमारे प्रकाश के त्यौहार को मनाने के लिए नृत्य के लिए तैयार हैं
हमारे रिपोर्टर ने पूरे युनाय्टेड् स्टेट्स् में उन महत्वपूर्ण मुद्दों पर टिप्पणी करने को कहा जिनका आज हम देश में सामना कर रहे हैं
द्वारा लवीना मेलवानी, न्यू यार्क
अमेरिका में हिन्दू धर्म के विकास ने बहुत से प्रश्न उत्पन्न किये हैं। उनका उत्तर कैसे दिया जा सकता है? अमेरिका में हमारे इतिहास की छोटी तस्वीर यह दिखाते हुए शुरु की जा सकती है कि हम कहाँ तक आ गये हैं।
जब अमेरिका में १९०० के दशक में पहले भारतीय आप्रवासी अमेरिका आये, तो उन सभी को “हिन्दू” कहा जाता था—चाहे उनकी आस्था जो भी हो—और इस दुनिया में उनका तिरस्कार किया गया था। उनको अपना परिवार ले आने या नागरिक बनने की अनुमति नहीं थी। फ़िर भी वे आये, और इस विदेशी भूमि पर अपने लिये पैर रखने की जगह बनाने की कोशिश करते रहे।
१९६५ के प्रवासी क़ानून (१९६५ इम्मिग्रेशन् एँक्ट) ने हिन्दुओं को अपने परिवार को अमेरिका ले आने की अनुमति दी, और ज़ल्द ही ये प्रवासियों की संख्या बढ़ गयी। जनसंख्या के आँकड़े दर्शाते हैं कि अब अमेरिका में लगभग चालीस लाख भारतीय हैं; जिनमें से ५४ प्रतिशत हिन्दू हैं। साथ ही, बहुत से ग़ैर-भारतीय हिन्दू भी हैं। एक चीज़ निश्चित है: बहुत से कठिन दिनों और विषम परिस्थितियों में भी, बहुत से हिन्दू अपने पूर्वजों के विश्वासों और उन रीतिरिवाज़ों को मानते रहे जिनके साथ वे बड़े हुए थे।
इस प्रारम्भिक समुदाय द्वारा बनाये गये सबसे पुराने मन्दिर अस्थायी, छोटे धार्मिक स्थल थे जो लोगों के घरों या तलघरों में थे। दीपावली अकेले मनायी जाती थी। माथे पर बिन्दी लगाना या साड़ी पहनना किसी ऐसे ध्यान आकर्षित कर सकता था जिसमें तिरस्कार हो। बहुत कम लोग ही ८० के दशक के नस्लीय डॉटबस्टर हमलों को भूल सकता है, जब भारतीयों पर सफ़ेद गुण्डों के समूहों द्वारा हमले किये जाते थे।
इन वर्षों में अमेरिका में हिन्दुओं के लिये चीज़े बदल गयी हैं। सबसे महत्वपूर्ण रहा है देश में भारतीयों की जनसंख्या में तेज़ उछाल—और भारतीय-अमेरिकी बच्चों की पहली-, दूसरी- और यहाँ तक कि तीसरी-पीढ़ी का जन्म। बहुत से बिखरे हुए स्टोरफ़्रण्ट मन्दिर और सामान्य तलघर के समारोह अब बदल चुके हैं: अब पूरे अमेरिका में लगभग ४५० मन्दिर हैं, जिनमें हिन्दुओं के कई प्रकार के सम्प्रदाय शामिल होते हैं, जहाँ सैकड़ों हिन्दू पुजारी बढ़ते हुए समूहों को निर्देशित करते हैं।
हिन्दुओं की जनसंख्या बहुत विविधतापूर्ण है। वे केवल भारत से नहीं आते हैं बल्कि कई देशों से आते हैं जिसमें नेपाल से लेकर मलेशिया, केरिब्बियन् जैसे देश शामिल हैं। अलग-अलग समूहों ने अपने विश्वास से अलग-अलग तरीक़ों से जुड़े हुए हैं। बहुत से यहाँ पाँच दशकों से रह रहे हैं, जबकि कुछ अभी हाल ही में आये हैं।
हिन्दू ने अमेरिका को कई तरह से अपनाया है। कुछ पुरानी प्रथाएँ छोड़ दी गयी हैं, कुछ की फ़िर से व्याख्या की गयी है और नयी प्रथाएँ तैयार हुई हैं। बच्चे, विशेष तौर पर, समायोजित हुए हैं और अपनाया है। कुछ ने अपने धर्म को पूरी तरह से छोड़ दिया है, कुछ इसका ज़्यादा कठोरता से पालन करने लगे है, और कुछ अन्य ने इसे अमेरिका में अपने जीवन के हिसाब से बदल दिया है।
आप्रवासियों और उनके अमेरिकी बच्चों ने हिन्दू धर्म में अपनी नयी बारीकियाँ जोड़ी हैं। बहुत से हिन्दुओं ने दूसरे धर्म के अमेरिकियों से शादी की है और उन्हें अब अपने धर्म को फ़िर से व्यवस्थित करना होगा और अपनी आस्था में समायोजन करना होगा। हिन्दू बच्चे, जो विभिन्न धर्मों, नस्लों और संस्कृतियों के बीच बड़े हो रहे हैं, वे भी हिन्दू धर्म को एक अलग लेंस से देखते हैं।
यह देखने के लिए अमेरिका में हिन्दू धर्म कहाँ बढ़ा है—और क्या इनमें से कुछ परिवर्तन भारत के समाज को भी प्रभावित कर रहे हैं— हिन्दुइंज़्म टुडे ने पाँच प्रसिद्ध नेताओं की राय जानने के लिए उनका साक्षात्कार किया: डॉ. उमा माइसोरकर, फ़्लशिंग, न्यूयॉर्क में उत्तरी अमेरिका का हिन्दू मन्दिर समाज के अध्यक्ष; डॉ. वसुधा नारायणन, नॉर्थ फ़्लोरिडा विश्वविद्यालय में धर्म के प्रख्यात प्रोफ़ेसर; चिन्मय मिशन के स्वामी ईश्वरानन्द; डॉ. स्थानेश्वर तिमलसिना, संस्कृत विश्वविद्यालय के स्नातक और सैन डिएगो राज्य विश्ववविद्यालय में धार्मिक अध्ययन के प्रोफ़ेसर; और स्वामी परमेशानन्द, जो न्यूयॉर्क में रहते हैं और भारत सेवाश्रम संघ के अमेरिकी और अन्तरराष्ट्रीय प्रतिनिधि हैं। एक युवा की बात को जानने के लिए, हमने अनु सिंह से भी बात की जिन्होंने हाल ही में राइस विश्वविद्यालय से काइन्सियोलॉजी से बी.ए. किया है, जो एक हिन्दू छात्रों के ग्रुप युवा में सक्रिय भागीदारी करती हैं।
संस्कृति, परम्परा और समुदाय
स्वामी ईश्वरानन्द
“आइये सबसे पहले अक्सर प्रयोग किये जाने वाले शब्दों के बीच अन्तर समझते हैं: संस्कृति, परम्परा और समुदाय,” स्वामी ईश्वरचन्द ने कहा। “संस्कृति किसी की मातृभूमि से लायी गयी जीवनशैली है जिसमें भोजन, त्यौहार, भाषा, धार्मिक प्रथाएँ और कला आती है; यह प्रायः किसी के नये वातावरण के हिसाब से बदल जाती है, जैसे कि जब भारत में कोई एक राज्य से दूसरे राज्य में जाता है। परम्परा कुछ कम तरल होती है। यहाँ, कुछ तय मानदण्ड और प्रथाएँ होती हैं जो एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को इस उम्मीद के साथ सौंपी जाती हैं कि उनका पूरी तरह से पालन किया जायेगा। परम्पराएँ धार्मिक विश्वास के साथ बहुत घनिष्ठता से जुड़ी होती हैं। समुदाय से आशय किसी जगह के नियमों से शासित होने वाले साथ रहने वाले समुदाय से है। एक समुदाय में ऐसे लोग हो सकते हैं जो स्वतन्त्र रूप से अलग-अलग संस्कृतियों और परम्पराओं का पालन करते हों, बिना दूसरों को वैसा ही करने का दबाव बनाये।”
नयी तरह की धुनों और तरीक़ों को कैसे संभालें?
चलन के बारे में आपके विचार क्या हैं, जैसे कि बॉलीवुड के संगीत पर धार्मिक भजनों को घर पर या मन्दिर के सत्संग में बजाना, मन्दिर में जाते समय पश्चिमी ढंग के कपड़े पहनना?
“मुझे लगता है कि सुविधाओं को अमेरिका के हिसाब से देखना चाहिए—कपड़ों के बारे में सोचते समय कार्यस्थिति और मौसम को ध्यान में रखना चाहिए” डॉ नारायणन कहते हैं। “हालांकि कुछ मन्दिर ‘सामान्य कपड़ों’ की बात करते हैं (अक्सर महिलाओं के सन्दर्भ में), जबकि अन्य कुछ ज़्यादा विशिष्ट होते हैं। दक्षिण भारत में, कुछ मन्दिरों में पुरुषों को अपनी शर्ट उतारनी और धोती पहननी होती है; ऐसा पूरे अमेरिका में मुश्किल से ही कहीं होता है।”
वह मानती हैं कि संगीत, भाषा की तरह, लगातार विकसित होता रहता है। कुछ प्रार्थनाओं को विशेष लय में पढ़ना होता है, लेकिन अन्य को आकर्षण धुनों पर बैठा दिया जाता है। “मुझे लगता है कि यह सन्देश भेजने की इच्छा, इस पर केन्द्रित करने—या परम्परा से चिपके रहने, और सम्प्रेषण के समाप्त हो जाने के बीच एक तरह का समझौता है। माता-पिता, धार्मिक संस्थाएं और गुरु, हर पीढ़ी में, उस आदर्श स्थान की तलाश करते हैं।”
स्वामी परमेशानन्द ज़ोर देते हैं कि परम्परागत मन्दिर संगीत को हमेशा सामान्य होना चाहिए और बॉलीवुड की शैली के संगीत से हमेशा बचना चाहिए। “अगर हम बहुत उदार हो जायें, तो नैतिकता और आचार-विचार ख़त्म हो जायेंगे जो कि अच्छी नींव की रीढ़ हैं। हम हमेशा कपड़ों को बदल सकते हैं, अगर हम पहले ही मन्दिर जाने का अनुमान कर लें। यह सबकुछ योजना की बात है। प्रार्थना करना, प्रसाद चढ़ाना, ध्यान करना, प्रसाद लेना और घर जाना। यह सब ईश्वर के बारे में है, मनुष्य के बारे में नहीं।”
स्वामी ईश्वरानन्द कहते हैं, “संगीत की कोई भाषा नहीं होती, न ही प्रेम की। ईश्वर के प्रति प्रेम के लिए पूरी तरह अभिव्यक्त करना चाहिए, चाहे ईश्वर की महिमा को किसी भी तरह के संगीत में गाया गया हो।”
वह कहत हैं कि कपड़े हमेशा स्थान के हिसाब से होने चाहिए। “क्या हम काम के समय पजामा या पर्व के समय शॉर्ट्स पहनेंगे? क्या शॉर्ट को चर्च या मस्ज़िद में उपासना के समय पहनने की अनुमति दी जायेगी? मुझे इसमें सन्देह है। पूजा के स्थल पर पहनावे को ध्यान भंग करने वाला नहीं होना चाहिए। इसे आसपास के लोगों में जुनून और वासना उत्पन्न करने वाला नहीं होना चाहिए। और स्पष्ट करें, यह पुरुषों और महिलाओं पर एक तरह से लागू होता है। टी-शर्ट पर लिखी हुई अप्रिय उक्तियाँ भी अन्य समस्या हैं और प्रार्थना और पूजा की जगह पर उनसे बचना चाहिए।”
स्थानेश्वर तिमालसिना को लगता है कि ड्रेस कोड लागू करना व्यावहारिक नहीं है, लेकिन सभी को पवित्र स्थानों का सम्मान करना चाहिए और सामान्य कपड़े पहनने चाहिए। जहाँ तक संगीत का सवाल है, वह कहते हैं, “हालांकि लोकप्रिय गाने युवाओं के मस्तिष्क को तेज़ी से पकड़ लेते हैं, लेकिन उनमें रस नहीं होता, बदलाव की शक्ति नहीं होती। हमें लोगों को शास्त्रीय तरीक़ों के महत्व के बारे में शिक्षित करना होगा। बड़ों के तरीक़ों को कट्टर तरीक़े से थोपना, युवा पीढ़ी को मन्दिर जाने या रीति-रिवाज़ों में भागीदारी करने से रोकेगा।”
हम युवाओं की और अधिक भागीदारी को कैसे प्रेरित कर सकते हैं?
कॉलेज जाने के बाद अमेरिका में किसी भी धर्म के युवा के लिए अधार्मिक या धर्म विरोधी हो जाना सामान्य है। हिन्दू युवाओं में ऐसी प्रवृत्तियों का मुक़ाबला करने के लिए क्या किया जा सकता है?
“यह दुखद परन्तु सत्य है,” स्वामी ईश्वरानन्द कहत हैं। “सोशल मीडिया, फ़िल्मों और टीवी शो के चलन ज़्यादातर परम्परा-विरोधी और धर्म-विरोधी हो गये हैं, और दुर्भाग्य से अमेरिका की युवा पीढ़ी इनमें उससे कई ज़्यादा भरोसा करती है जो उन्हें उनके माता-पिता या धार्मिक संस्थाओं द्वारा पढ़ाया जाता है।”
इस प्रवृत्ति का मुक़ाबला करने के लिए, वह कहते हैं, “माता-पिता को परिवार में किशोरों के साथ पालन किये जाने वाले मूल्यों को लेकर मैत्रीपूर्ण वार्तालाप बनाये रखने के लिए अतिरिक्त प्रयास करना चाहिए और मन्दिर के कार्यक्रमों और धार्मिक संस्थाओं के माध्यम से समुदाय के सेवा करन के लिए साथ में लाना चाहिए। जब वे ऐसी संस्थाओं से जुड़ जाता है जो धार्मिक विश्वास पर आधारित समाज कल्याण के लिए काम करती हो, वहीं उम्मीद है।”
स्वीमी परमेशानन्द सहमत होते हैं: “एक प्रवृत्ति जो हम देख रहे हैं यह है कि हिन्दू युवा मन्दिर नहीं जाते, और जब वे उच्च-शिक्षा के संस्थानों में जाते हैं तो स्थिति और भी बुरी हो जाती है। कुछ लोग त्यौहारों में सामाजीकरण के एक रूप के तौर पर शामिल होते हैं। कुछ लोग मन्दिर इसलिए आयेंगे क्योंकि वे संगीतकार या गायक हैं। इसका समाधान क्या है? सोशल मीडिया पर अंग्रेज़ी में छोटे प्रेरणादायक वार्तालाप तैयार कीजिए।”
वह कहते हैं कि एचएमईसी (हिन्दू मन्दिर्स एक्जीक्यूटिव कॉन्फ़्रेंस) के साथ काम करते समय, उन्होंने एक युवा शाखा को देखा जिसने प्रबन्धन और योजना समेत मन्दिर के संचालन के सभी पहलुओं में युवाओं की भागीदारी का अध्ययन किया और इसे प्रोत्साहन दिया। उन्होंने ज़ोर दिया कि युवाओं को केवल बड़ों की सहायता करने वाले या उनका आदेश मानने वाले के रूप में नहीं लेना चाहिए।
डॉ. नारायण बताते हैं, “असल में, मैंने बहुत से ऐसे छात्रों को भी देखा है जो बहुत धार्मिक हो जाते हैं। अन्य निजी विश्वविद्यालयों में जाने पर, मैं ऐसे हिन्दू पुजारियों से मिलता हूँ जो इस कमी की पूर्ति कर रहे हैं। ऐसी परिस्थितियों में, जब कुछ मिलता है तो कुछ खो जाता है। छात्र हिन्दू प्रथाओं और दर्शन की विशेषताओं को तो जानते हैं, लेकिन उनमें से कुछ बहुत सामान्य हैं और उस छात्र के घर में परम्परागत प्रथाएँ नहीं होती हैं। आदर्श रूप में, लोग अपने बचपन और उन समुदायों की प्रथाओं को करते रहते हैं जिनसे उनके माता-पिता होते हैं।”
वह एक उपाय सुझाती हैं: “बहुत से विश्वविद्यालय हिन्दू धर्म, धर्म, भारतीय इतिहास, कला और अन्य चीज़ों पर पाठ्यक्रम चलाते हैं। माता-पिता अपने बच्चों को इन्हें लेने के लिए प्रोत्साहित करना चाहते हैं। मैंने यह भी देख है कि माता-पिता परेशान हो जाते हैं जब उनके बच्चे बहुत से मानविकी के विषय ले लेते हैं या ऐसे विषय ले लेते हैं जो सीधे किसी पेशेवर पाठ्यक्रम से नहीं जुड़े हैं। मुझे उम्मीद है कि कुछ समय बाद वे विशेषज्ञता के इन क्षेत्रों में भी रुचि दिखायेंगे।”
अनु सिंह हिन्दू स्वयंसेवक संघ में बड़े होने का अपना अनुभव साझा करती हैं: “हमारे स्थानीय समुदाय के साथ सकारात्मक सम्बन्ध रहे, जैसे कि पुलिस अधिकारियों और अग्निशामक दल के लोगों को राखी बाँधना, गुरु वन्दना में स्कूल के अध्यापकों का सम्मान करना, और स्थानीय खाद्य भण्डारों के साथ खाद्य वितरण आयोजित करना। मुझे लगता है कि मुख्य लाभ यह है कि हिन्दुओं के बड़े समुदाय में में यह जागृति बढ़ रही है और प्रदर्शित हो रही है कि हम केवल अपने धर्म का पालन करने के अलावा समाज के मूल्यवान सदस्य हैं।”
हम मन्दिर के कार्यक्रमों को और लोगों को शामिल करने वाला कैसे बना सकते हैं?
कुछ देशों, जैसे कि मलेशिया में यह आम है कि प्रत्येक मन्दिर से जुड़ा हुआ युवाओं का एक सक्रिय सूह होता है जो विशेष रूप से त्यौहारों को मनाने में विशेष तौर पर सहायता करता है। अमेरिकी मन्दिरों में किस सीमा तक ऐसे कार्यक्रम होते हैं जिन्होंने सफलतापूर्वक युवाओं को शामिल किया हो?
विविधतापूर्ण परिदृश्य दिखाई देता है, जिसमें विभिन्न संस्थाएँ अलग-अलग स्तरों पर छात्रों के साथ काम करती हैं। स्वामी ईश्वरानन्द कहते हैं, “बहुत कम ही धार्मिक संस्थाएँ और मन्दिर हैं जहाँ युवा सक्रिय हैं। गतिविधियों का स्तर उसके आसपास भी नहीं है जितना वे हो सकते थे या उन्हें होना चाहिए। मैं निश्चित तौर पर माता-पिता को युवाओं की भागीदारी के लिए ज़िम्मेदार मानता हूँ। किसी आस्था-आधारित संस्था से जुड़ा होना युवा को समाज-विरोधी या मुख्यधारा में शामिल होने के लिए अयोग्य नहीं बनाता, जैसा कि बहुत से माता-पिता सोचते हुए प्रतीत होते हैं।”
डॉ. नारायणन ने बच्चों की भागीदारी में उनकी उम्र और रुचियों के हिसाब से वृद्धि और कमी देखी है, जिसमें छोटे बच्चे ज़्यादा ज़्यादा शामिल होते हैं: “बालविहार और छोटी उम्र में कहानी-सुनाने का काम; चुनौती उन तरीक़ों का पता लगाना है जिससे बच्चों की रुचि बनाये रखी जाये। लेकिन हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि बहुत से युवक और युवतियों ने हिन्दू संस्कृति के बारे में संगीत और नृत्य की कक्षाओं में भी सीखी था जो उन्होंने बचपन में ली थीं।”
डॉ. वसुधा नारायणन
स्थानेश्वर तिमलसीना का मानना है कि यह कार्य अभी भी प्रगति कर रहा है, और कुछ मन्दिर संस्थाएँ, जैसे कि स्वामीनारायण मन्दिर शानदार काम करती हैं। “हमने युवा पीढ़ी को मन्दिर की गतिविधियों में आकर्षित करने के लिये पर्याप्त विषयवस्तु नहीं तैयार किये हैं। पहले घर पर, बच्चे प्रथाओँ और विश्वाशों को सांस्कृतिक परासरण से ही सीख जाते थे, लेकिन यहाँ यह सम्भव नहीं है। इसलिए मन्दिर संस्थाओं को युवाओं की ओर ज़्यादा उन्मुख होना चाहिए। और यह केवल तभी सम्भव होगा जब वे खुले दिमाग़ वाले और कम रुढ़िवादी हों।”
अनु सिंह कहती हैं, “बहुत से कॉलेज़ों में, हिन्दू-विरोधी होने का और दक्षिण एशियाई के रूप में चिन्हित करने का चलन है लेकिन अभी भी हिन्दू धर्म की सतही संस्कृति का पालन किया जाता है। हमारी विरासत के बारे में हर सकारात्मक चीज़ को दक्षिण एशिया की चादर के नीचे ढक दिया जाता है, जबकि हिन्दू धर्म को नकारात्मक और अन्धविश्वासी के रूप में चित्रित किया जाता है।” इसका उपाय क्या है? “मुझे लगता है कि युवाओं को हिन्दू के रूप में अपनी पहचान को लेकर मज़बूत होना चाहिए। फ़िर अपने विश्वविद्यासय में अपने-जैसे लोगों से मिलना चाहिए या परिसर में किसी हिन्दू क्लब से जुड़ना चाहिए ताकि आप दूसरों से मिलकर मज़बूत हो सकें।”
हमारे पुजारियों का जीवन कैसे चल रहा है?
पुजारियों के बारे में क्या, मध्यस्थ कौन हैं, संस्कृति और धर्म की व्याख्या करने वाले? उनका जीवन अमेरिका में कैसे बदल रहा है, और ये बदलाव आने वाली पीढ़ियों पर कैसे असर डालेंगे?
डॉ. नारायणन का मानना है कि आम तौर पर पुजारी स्थिर होते हैं, लेकिन वेतन और लम्बे घण्टे मन्दिरों के हिसाब से बदलते रहते हैं। बहुत से मन्दिर शुरुआती दिनों में कुछ ज़्यादा सुरक्षित थे, क्योंकि वे कम ही थे। अब, अटलांटा और ह्यूस्टन जैसे शहरों के इर्द-गिर्द दर्जनों मन्दिर हैं। बहुत से अपने शुरुआती दिनों में ही हैं और उन्हें थोड़ा संघर्ष करना पड़ सकता है।
स्थानेश्वर तिमलसिना कहते हैं कि स्थिति जटिल है: हालांकि मन्दिरों की संस्थाएँ अपने आप में पर्याप्त हैं, या यहाँ तक कि पैसे वाली भी हैं, लेकिन पुजारियों का बड़े पैमाने पर शोषण होता है। “प्रायः पुजारियों का नौकरों की तरह प्रयोग किया जाता है और ट्रस्टियों के सामने पूरी तरह न झुकने पर निकाल दिया जाता है। ज़्यादातर पुजारी ग़रीब परिवारों से आते हैं, और ग्रीन कार्ड का वादा करके उनका शोषण किया जाता है। प्रायः उनसे अपना ख़ुद का सामाजिक नेटवर्क विकसित न करने को कहा जाता है।” वह कहते हैं कि किसी पुजारी को पश्चिम में लाने से पहले, उसे कुछ सांस्कृतिक सम्बन्धी दिशानिर्देश प्रदान करने चाहिए, और यदि बाद वह किसी और काम को खोजना और आगे बढ़ना चाहता है तो मन्दिर की समिति को सहयोग करना चाहिए।
स्वामी परमेशानन्द इसमें एक व्यक्तिगत परिप्रेक्ष्य जोड़ते हैं, क्यूंकि वह गयाना से हैं: “केरिब्बियन् या दक्षिण अमेरिकी अनुयायियों वाले ज़्यादातर मन्दिर परिवारों के मालिकाने में और उनके द्वारा व्यवसाय के रूप में संचालित होते हैं। मूल संस्कृति वाले मन्दिर ज़्यादा संस्थागत रूप से संचालित होते हैं, जो एक सहमति से तय किये गये वेतन, स्वास्थ्य सुविधाओं, छुट्टियों और ग्रीन कार्ड पाने की सम्भावना के आधार पर पुजारियों को बाहर से ले आते हैं।”
हिन्दू मन्दिर समिति के अध्यक्ष के तौर पर डॉ. माइसोरकर ने बहुत से पुजारियों से बातचीत की है। वह बताती हैं, “उन्हें बहुत अच्छा वेतन मिलता है, और ज़्यादातर बड़े मन्दिर उन्हें रहने की जगहें और खर्चे देते हैं। वे अपने बच्चों को स्कूल, कॉलेज और पेशेवर संस्थाओं में भेजते हैं। इस तरह वे आरामदायक जीवन जीते हैं, और हमें यह देखकर खुशी है।” लेकिन छोटे मन्दिरों और स्वतन्त्र पुजारियों की बात अलग हो सकती है।
भविष्य के लिए, वे सुझाती हैं कि पुजारियों को अंग्रेज़ी में और अधिक धाराप्रवाह होने की आवश्यकता है ताकि वे युवा पीढ़ी से वार्तालाप कर सकें। वर्तमान में, बूढ़े लोग युवाओं के लिए व्याख्या करते हैं, लेकिन जल्द ही उन पुजारियों में दूरी बन जायेगी, जो केवल क्षेत्रीय भाषाएँ या संस्कृत बोलते हैं, और उन युवाओं की टोलियों में जो ज़्यादातर अंग्रेजी बोलते हैं, या थोड़ा बहुत क्षेत्रीय भाषाएँ—और संस्कृत बिल्कुल ही नहीं।
कॉनकॉर्ड, कैलिफ़ोर्निया के शिव मुरुगन मन्दिर में श्रद्धालु कावडि करते हैं और ताई पुसम उत्सव में हिस्सा लेते हैं। २०१९ में ६,००० से ज़्यादा लोगों ने मन्दिर की पदयात्रा में हिस्सा लिया था।
हम विविधतापूर्ण विवाहों की परिस्थिति में कैसे काम कर रहे हैं?
मन्दिर और पुजारी आधुनिक विवाहों की जटिलताओं में कैसे काम कर रहे हैं, जिसमें विभिन्न जातियों, नस्लों, जातीय-समूहों, धर्मों और लिंगों का मिलन होता है?
डॉ. माइसोरकर, जो अमेरिका में पाँच दशकों से रहती हैं, उन्होंने भारतीय-अमेरिकी समुदाय को शून्य से विकसित होते हुए देखा है। वह फ़्लशिंग, न्यूयॉर्क के हिन्दू मन्दिर समाज से जुड़ी हुई हैं जो १९७७ में अमेरिका के पहले परम्परागत मन्दिर के रूप में बना था। “मैंने पिछले ५० वर्षों में महत्वपूर्ण बदलाव देखा है। जो माता-पिता अपने बच्चों की ग़ैर-हिन्दुओं से शादी का विरोध करते हैं, वे प्रायः अपने बच्चों को खो देते हैं। यदि वे अपने बच्चों से जुड़े रहना चाहते हैं तो उनके पास अपनाने के अलावा और कोई रास्ता नहीं है।
“हमारे मन्दिर में हिन्दू और ग़ैर-हिन्दुओं के बीच बहुत सी शादियाँ हो चुकी हैं। कोई भी अब जाति के बारे में चिन्ता नहीं करता, और मुझे इस बात का गर्व है। हमारा मन्दिर इसे बढ़ावा देता है और हमारे युवा इससे बहुत खुश हैं। इस दृष्टिकोण से चीज़ें बेहतर होने की दिशा में बहुत अधिक बदल गयी हैं।”
वह आगे कहती हैं, “एक मात्र प्रथा जिसको हमने कड़ाई से बढ़ावा नहीं दिया है, वह है समलैंगिक विवाह। हमारे पुजारी यह नहीं करेंगे।”
डॉ नारायणन सहमत होती हैं कि अन्तरसांस्कृतिक विवाह अब हिन्दू मन्दिरों में पूरी तरह से स्वीकार किये जाते हैं। समारोह की इस तरह से अपनाया जाता है जिससे दूल्हा और दुल्हन दोनों सन्तुष्ट हों। वह बताती हैं कि विभिन्न जातियों और धर्मों में शादियाँ भारत में और पूरी दुनिया के हिन्दुओं में आम है: “आम तौर पर, पुजारी जोड़ों का बहुत सहयोग करते हैं। जोड़ों को मिली हुई प्रथाओं और परम्पराओं में संघर्ष करना पड़ता है। एक चीज़ जो आज के जोड़ों के लिए मुद्दा है वह है कन्यादान का विचार (दुल्हन को दान करना)।
“किसी समलैंगिक विवाह में काम करने का मुद्दा अमेरिका में कुछ मन्दिर प्रबन्धनों के लिए कठिन लगता है। मैंने सुना है कि भारत और अमेरिका में कुछ पुजारी ऐसा करते हैं, लेकिन आम तौर पर, वे स्वतन्त्र पुजारी होते हैं।”
वह बताती हैं कि कुछ लोग विवाह के प्रति दो परिवारों के मिलन की प्रथा का दृष्टिकोण रखते हैं। बहुत से युवाओं ने उनसे अनुष्ठान और कार्यक्रम तैयार करने में सहायता माँगी है। “मैं सप्तपदी (जब जोड़ा पवित्र अग्नि के सात फ़ेरे लगाता है) के बाद बोले जाने वाले मन्त्रों का विशेष उल्लेख करती हूँ। हमारे मन्त्रों के यह पहलु, जैसे कि मित्रता और साहचर्य जिसकी दोनों जोड़ों के बीच कल्पना की जाती है, जोड़ों के लिए उत्सव की ख़ूबसूरती को सामने लाते हैं। प्रथाएँ बदल रही हैं; लेकिन कुछ, जैसे कि सप्तपदी, को शादी से जुड़ा हुआ माना जाता है। जब कोई पुजारी के साथ काम करता है, तो वे भी लचीले होते हैं।”
अनु सिंह कहती हैं: “मेरी दृष्टि से, सनातन धर्म अपने अनुयायियों को विवाह समेत, जीवन के बहुत से पहलुओं में स्वच्छंदता और स्वतन्त्रता प्रदान करता है। चूंकि अन्तरधार्मिक विवाह आम हो गये हैं, मन्दिरों को इसे अवश्य सम्बोधित करना चाहिए।”
समलैंगिक विवाह का मामला, हालांकि बहुत से पुजारियों और मन्दिरों को परेशान करता है। इसलिए, ज़्यादातर समलैंगिक विवाह स्वतन्त्र पुजारियों या महिला पुजारियों द्वारा कराये गये हैं जो ज़्यादा प्रगतिशील ढंग से सोचते हैं। अनु इसे सही दिशा में उठाया गया क़दम कहती हैं।
स्वामी ईश्वरानन्द चेतावनी देते हैं, “समलैंगिक विवाहों को समुदाय द्वारा स्वीकार किया जा सकता है लेकिन संस्कृति और परम्परा द्वारा नहीं। मन्दिर जो संस्कृति और परम्परा के गढ़ होते हैं, वह समलैंगिक मिलन के लिए सही जगह नहीं हो सकते।”
स्वामी परमेश्वरानन्द उन मन्दिरों और लाइसेंसधारी पुजारियों को इस चेतावनी के बारे मे आगाह करते हैं जो समलैंगिक विवाहों का समर्थन नहीं करते हैं:“अगर आप अमेरिका में राज्य द्वारा लाइसेंस प्राप्त शादी के पुजारी हैं तो समान अधिकार क़ानून लागू हो सकते हैं।”
क्या महिलाओं को अन्तिम संस्कार करने की अनुमति देनी चाहिए?
यदि पुत्र न हो या पुत्री, पुत्र से बड़ी हो तो क्या महिला माता-पिता की चिता को अग्नि दे सकती है?
स्थानेश्वर तिमलसीना कहते हैं कि पुराने ग्रन्थों पर आधारित लैंगिक भूमिकाएँ आज के समाज में पूरी तरह लागू नहीं हो सकती हैं। “क्या होगा कि अगर किसी के पास केवल एक पुत्री हो, या एक पुत्री हो जो संस्कार करना चाहती हो। क्या उसे संस्कार करने से रोक देना चोट पहुँचाने वाला और अधार्मिक कृत्य नहीं है?” पुराने समय में, वह बताते हैं, यह पुत्र का कर्तव्य था क्योंकि पुत्री का कर्तव्य उसके विवाह के बाद दूसरे परिवार में होगा: उससे अन्तिम संस्कार करने को कहना अतिरेक हो जाता। वह आगे कहते हैं, “यह उत्तराधिकार से भी सम्बन्धित है। आज बहुत सी चीज़ें बदल गयी हैं। पुराने समय में, इसका सम्बन्ध अग्निहोत्र के लिए अग्नि संस्कार को चलाते रहने से भी था। आज इसे कितने लोग बनाकर रख रहे है?”
स्वामी परमेशानन्द पूछते हैं, “प्रेम करने, देखभाल करने और कर्तव्य पूरा करने वाली पुत्री को अपने पिता का अन्तिम संस्कार क्यों नहीं करना चाहिए? पिता और पुत्री के बीच का आध्यात्मिक बन्धन सभी धार्मिक सिद्धान्तों से बढ़कर है। यदि कोई पुत्र है और वह करना चाहता है, तो पहली प्राथमिकता उसे देनी चाहिए।”
डॉ. माइसोरकर कहती हैं कि भारत में माता-पिता और पुजारी इसे स्वीकार कर रहे हैं तो यहाँ क्यों नहीं? “मैंने देखा है कि यहाँ पुजारी बदल रहे हैं क्योंकि वे भी समझते हैं कि यहाँ बदलाव हो रहे हैं। एक पुत्री का अन्तिम संस्कार करना बिल्कुल स्वीकार्य है यदि कोई पुत्र नहीं है, या पुत्र बहुत छोटा है पुत्री बड़ी है। इसमें कुछ भी ग़लत नहीं है। हमारा धर्म कुछ और नहीं सिखाता।”
डॉ. नारायणन अनुभनव से बताती हैं: “जब चेन्नई में मेरे पिता का देहावसान हुआ तो सौभाग्य से मैं उनके साथ थी। मैं दो बेटियों में से पहली हूँ। परिस्थितियों के कारण, मैंने स्वयं को प्रस्तुत किया, और मैंने चेन्नई में उनका अन्तिम संस्कार किया। अन्तिम संस्कार करने और बंगाल की खाड़ी में अस्थियों को प्रवाहित करने, जहाँ मेरे पिता रोज टहलते थे मैं घर पर भावनात्मक और शारीरिक रूप से थककर वापस आयी। उसके बाद, पूरा परिवार बंगलुरु और मुम्बई से आ गया। मेरी माँ और पूरा परिवार खुश था कि मैंने इसे किया। इसलिए यह प्रश्न भारत में भी लागू होता है।”
वह उल्लेख करती हैं कि भारत में भी, महिला पुजारी हैं जो धार्मिक कर्मकाण्ड करती हैं। “अब यह लिंग-आधारित नहीं है। हमें समय के साथ चलना चाहिए; हम सब ईश्वर की सन्तानें हैं, और मुझे लगता है कि सभी को यह ईश्वरीय कार्य करने का अधिकार है।”
अनु सिंह पवित्र ग्रन्थों का उदाहरण देती हैं: “मेरे पिता ने यह कहानी गया में एक तीर्थयात्रा में सुनी थी: एक बार श्री राम दूर थे और राजा दशरथ गंगा के किनारे सीता देवी के सामने प्रकट हुए। उन्होंने उनसे बताया कि यह एक शुभ घड़ी है और उनसे अपना श्राद्ध (मृत्यु संस्कार) करने को कहा, जो उन्होंने किया। इसलिए, मेरा मानना है कि हिन्दू परम्परा किसी पुत्री को अपने पिता के दाह-संस्कार करने की अनुमति देती है। कई मामलों में इसकी अनुमति न देना अव्यावहारिक होगा।”
नेपाल के पशुपतिनाथ मन्दिर पर दाह-संस्कार घाट
महाकाव्यों को प्रस्तुत करने का सबसे प्रभावशाली तरीका क्या है?
अमेरिका में बच्चे प्रायः अपने दादा-दादी से दूर रहते हैं और वे रामायण और महाभारत तथा इन पवित्र पुस्तकों में दी गयी परम्पराओं से अपरिचित होते हैं। महाकाव्यों का प्रभावशाली तरीके से प्रयोग कैसे किया जा सकता है?
काठमाण्डू के एक मन्दिर में रामायण की प्रति
स्वामी ईश्वरानन्द यह उल्लेख करते हैं कि अपने समय विशेष के सांस्कृतिक लोकाचार और धार्मिक विश्वासों को शामिल करने के साथ ही, ये ग्रन्थ उन मूल्यों को सम्प्रेषित करते हैं जो प्रत्येक हिन्दू के लिए सनातन धर्म को समझने के लिए अनिवार्य हैं, जो कि एकता और सभी जीवों के लिए परस्पर सम्मान पर आधारित है: “यह उन दो पुस्तकों का पाण्डित्य है जिसके कारण वे समय की सीमाओं से परे हो गयी हैं। अगली पीढ़ी को इससे प्रासंगिक और उचित रूप से अवगत कराया जाना चाहिए।”
अनु सिंह मानती हैं कि कहानियों को बताने वाले लोग शाब्दिक तौर पर घटनाओं पर या उस समय की नैतिक शिक्षाओं पर बहुत अधिक केन्द्रित हो सकते हैं, जो कि अमेरिका में बड़े होने वाले बच्चों के साथ मेल खाती हुई प्रतीत नहीं हो सकती हैं: “मुझे लगता है कि कहानियों के गहरे अर्थ पर केन्द्रित करना और नैतिकता को वर्तमान स्थिति में लागू करना इन ग्रन्थों को और प्रासंगिक बना सकता है। आधुनिक युवा ज़्यादा आलोचनात्मक और वैज्ञानिक हैं, इसलिए हमें ग्रन्थों को उचित तरीके से प्रस्तुत करना चाहिए। एक बच्चे के तौर पर, मैंने महाकाव्यों को कहानियों के रूप में सीखा; लेकिन जब मैं बड़ी हुई, कहानियों के रूपगत अर्थ को जानने से मुझे उनके महत्व और महानता को समझने में आसानी हुई।”
डॉ. नारायणन का प्रस्तावित करती हैं, “कहानियाँ सदियों से हिन्दू संस्कृति के सम्प्रेषण का प्रमुख तरीक़ा रही हैं। दादा-दादी का कहानी, भजन सुनाना या चरित्र को दर्शाने वाला नृत्य—ये प्रदर्शन करने वाले तरीक़े बच्चे के एक कथानक में डूब जाने और वृहद संस्कृति से परिचित होने के साथ जुड़े हुए हैं।” वह याद करती हैं कि १९७० के दशक तक भारत में, जब आणविक परिवार ज़्यादा आम हो रहे थे, अमर चित्र कथा के संस्करण—और, बाद में, दूरदर्शन की प्रस्तुतियाँ—बहुत लोकप्रिय हुईं, और ये बच्चों के महाकाव्यों के बारे में जानने की ज़रिया बन गयीं। महाकाव्यों के एनिमेशन वाले संस्करण प्रवासियों में बच्चों का ध्यान खींचते हुए प्रतीत होते हैं। कहानियों को दिमाग में बैठाने में इनमें से कुछ दृश्यों का अभिनय करने का भी एक वृहद प्रभाव है, जैसा कि गीत सुनने का।
स्थानेश्वर तिमलसिना पवित्र ग्रन्थों को पढ़ाने में तकनीक के प्रयोग को पसन्द करते हैं: “हम पुराण से जुड़े विषयों पर आधारित प्रभावी वीडियो गेम बना सकते हैं। हालांकि हम अभी भी संस्कृति और मन्त्रों को ठीक उसी तरह से पढ़ा सकते हैं जैसे कि परम्परा द्वारा अनिवार्य किया गया है, हमें सन्देश को प्रेषित करने में माध्यम को बदलने को लेकर खुला होना चाहिए। महत्वपूर्ण माध्यम नहीं बल्कि सन्देश है।”
बच्चों को हमारी मूल भाषा सिखाना कितना महत्वपूर्ण है?
हिन्दू धर्म के उपदेशों को प्रसारित करने में भाषा कितनी महत्वपूर्ण है? कुछ समूह युवाओं को अंग्रेज़ी और अन्य भारतीय भाषाएँ पढ़ाते हैं। सबसे प्रभावी और स्थायी दृष्टिकोण क्या है?
स्थानेश्वर तिमलसिना कहते हैं, “मैं संस्कृत की मज़बूती से वकालत करता हूँ। लेकिन ईमानदारी से कहें, लेकिन बहुत से छात्र संस्कृत की शिक्षा को जारी रखने वाले नहीं हैं। हमारा ज़्यादातर शास्त्र संस्कृत भाषा में हैं, और मन्त्रों का अनुवाद नहीं किया जा सकता। लेकिन यदि हम चाहते हैं कि हमारे बच्चे सचमुच कुछ समझें, तो हमें उन्हें उस भाषा में पढ़ाना होगा जिसमें वे पढ़ना चाहते हैं। पढ़ाने का बिन्दु छात्रों को समझाना है, और यदि अंग्रेजी में पढ़ाने से उन्हें आसानी से समझने में मदद मिलती है, तो हमें अंग्रेज़ी का प्रयोग भी करना चाहिए। लेकिन हमें अपने बच्चों को अपनी पैतृक भाषा में भी शिक्षित करना चाहिए।”
फ्लशिंग के गणेश मन्दिर में मन्त्रोच्चार करते छात्र
स्वामी परमेशानन्द ने निरीक्षण किया है, “धर्म में हमेशा मातृभाषा सबसे अच्छी होती है। बहुत से भारतीय और ग़ैर-भारतीय संस्कृत या अन्य भारतीय भाषाओं में प्रार्थना करते हैं जिन्हें वे नहीं समझते; लेकिन वे बदलेंगे नहीं क्योंकि यह संस्कृति और परम्परा है। मैं एक विशिष्ट उदाहरण हूँ: जब मैं गयाना के ग्रामीण क्षेत्र में बड़ी हो रही थी, हिन्दी स्कूल या मन्दिरों में नहीं पढ़ायी जाती थी, लेकिन मैं एक स्वामी हूँ और धार्मिक से कहीं ज़्यादा आध्यात्मिक हूँ। ईश्वर की कृपा सभी भाषाओं से परे है। ईश्वर की भाषा मौन है।”
डॉ. माइसोरकर सभी क्षेत्रीय भाषाओं को मान देती हैं, लेकिन उनका मानना है कि अंग्रेज़ी का प्रयोग करना ज़्यादा व्यावहारिक है ताकि प्रत्येक व्यक्ति इसे समझ सके। हिन्दू मन्दिर समाज के एक धार्मिक निर्देशक हैं, एक पुजारी जो धाराप्रवाह अंग्रेज़ी में पढ़ा सकते हैं। साथ ही एक युवा समूह और युवा पेशेवरों का समूह भी है जो हिन्दू धर्म के सभी पहलुओं पर व्याख्यान आयोजित करता है। वह भारत में भी ऐसी ही परिस्थिति पाती हैं, जहाँ शिक्षित युवा अपनी क्षेत्रीय ज़ुबान बोलते हैं लेकिन वे अंग्रेज़ी में भी धाराप्रवाह हैं, प्रायः अंग्रेज़ी को अपनी क्षेत्रीय भाषाओं से बेहतर समझते हैं।
अनु सिंह सहमत होती हैं: “मुझे लगता है कि अंग्रेज़ी में पढ़ाना ज़्यादा स्थिर दृष्टिकोण है, क्योंकि अंग्रेज़ी में समझना और बातचीत करना सम्भवतः अधिकतर युवाओं के लिए अधिक आसान है। लेकिन कुछ शब्द और अवधारणाएँ हैं जिन्हें केवल संस्कृत में ही समझा जा सकता है, जैसे धर्म। यदि हम हर चीज़ का अंग्रेज़ी में अनुवाद करें, तो हम सही अर्थ खो देंगे और एक भाषा के कारण हिन्दू धर्म की एक ‘अब्राह्मीकृत’ अवधारणा ग्रहण कर लेंगे। मुझे लगता है कि युवाओं के लिए जितना अधिक सम्भव हो, अपनी मातृभाषा को सीखना चाहिए और हिन्दू धर्म में उस भाषा के साथ शामिल होना चाहिए, लेकिन यह बहुत से युवाओं के लिए सबसे अधिक व्यावहारिक विचार नहीं हो सकता।”
डॉ. नारायणन भाषा सीखने के पक्षधर हैं, जो धार्मिक शिक्षण के साथ मिला देने पर प्रभावी हो सकती है। “लेकिन बहुत सी चुनौतियाँ हैं, विशेष तौर पर अमेरिका के छोटे कस्बों में। बीएपीएस समुदाय में गुजराती सदस्य हैं, और उनके बीच ठोस सादृश्यता है। ऐसा अन्य मन्दिरों और संस्थाओं में नहीं दिखता जैसे कि चिन्मय मिशन जो कि अलग-अलग नृजातीयताओं और भाषाओं को सेवा देती हैं। ऐसे मामलों में, अंग्रेज़ी शिक्षण की एकमात्र भाषा हो जाती है। घर पर प्रार्थनाएं सिखाना और बच्चों को मातृ भाषा में बच्चों को कहानी सुनाने के साथ मिला देना प्रभावी हो सकता है। बहुत से मामलों में, हालांकि भाषा पीढ़ियों के साथ समाप्त हो जाती है।”
स्वामी ईश्वरानन्द भाषा की बहस के पक्ष और विपक्ष का समाहार करते हैं: “मूल्य-आधारित, सांस्कृतिक शिक्षा का उद्देश्य छात्रों को विषय-वस्तु की स्पष्ट समझ प्रदान करना है। जिस भाषा में भी छात्र धाराप्रवाह हो, उसका प्रयोग करना चाहिए। ऐसा कहने पर, युवाओं को भारतीय भाषाएँ सिखाने का सारा प्रयास किया जा सकता है। चिन्मय मिशन ने बच्चों के दाखिले और उन्हें अपनी संस्कृति के सम्पर्क में रखने के लिए पाठ्यक्रम के भाग के रूप में बहुत सी कक्षाएँ रखी हैं। ऐसा कोई आग्रह नहीं है कि छात्र केवल एक ही भाषा सीख सकता है।”
साथ में सीखना: चिन्मय मिशन के सदस्य स्वामी ईश्वरानन्द के साथ उनके स्थानीय केन्द्र लॉस एंजिलस, कैलीफ़ोर्निया में एक सामूहिक फ़ोटो लेते हुए।
समाहार
स्थानेश्वर तिमलसीना ने अमेरिका में हिन्दू धर्म के हमारे सर्वेक्षण का एक समावेशी और मुक्त-मस्तिष्क वाला निष्कर्ष प्रस्तुत किया: “हमें उस दोहरी समस्या को समझना होगा जिसका हम सामना करते हैं। एक, हमारे पारम्परिक विवाह प्रणाली पर हमला हो रहा है, इसे जातिवादी और शोषक करार दिया जा रहा है। दूसरे, हम मुक्त होकर एक व्यापक सांस्कृतिक प्रतिमान के अन्दर विभिन्न नृजातीयताओं और विभिन्न भाषाओं के, या विभिन्न संस्कृतियों के संरक्षण के बारे में नहीं सोच रहे हैं। जब हम व्यापक रूप से संस्कृतियों को समरूप बनाते हैं, हमें सांस्कृतिक संवेदनशीलता की बारीकियों का भी ध्यान रखना चाहिए जिन्हें आज इस सामान्य कथन के जरिये मिटाया जा रहा है कि परम्परागत निर्देश पूरी तरह से बुरे और दमनकारी होते हैं।”
वह संकेत करते हैं कि यदि हिन्दू धर्म को एक गतिशील और विकसित होती हुई शक्ति के रूप में रहना है तो हमें एक बड़ा चित्र लेना होगा: “हमें अपने तम्बू को बड़ा करना होगा और मंच को वास्तविक धार्मिक परिप्रेक्ष्य से बड़ा करना होगा। लैंगिक असमानता को सम्बोधित करने में, हम धार्मिक संहिताओं को दूसरी सभ्याताओं और संस्कृतियों के नियमों के माध्यम से नहीं समझा सकते हैं।
“समाज प्राचीन और मध्यकाल से बदल चुका है, इसलिए हमें प्रत्येक परिस्थिति का हमारे समय के अनुसार, धार्मिक संस्कृति के अन्दर, धार्मिक उपायों के साथ मुक्त रूप से मूल्यांकन करना चाहिए। सबसे ऊपर, हमारा लक्ष्य विश्व के कल्याण के लिए धर्म का प्रसार करना है; और इस विश्व में हर प्रकार के लोग हैं जो विभिन्न तरीक़ों का जीवन चाहते हैं। हमें लोगों द्वारा की गयी हर चीज़ को पसन्द नहीं करना पड़ेगा, लेकिन हमें लोगों के चुनावों का सम्मान करना सीखना होगा।”
लवीना मेलावानी एक न्यूयार्क की पत्रकार हैं जिन्होंने कई अन्तरराष्ट्रीय प्रकाशनों के लिए कला, आध्यात्मिकता और जीवन के बारे में लिखा है। वह CNBCTV18.com की स्तम्भकार हैं और चिल्ड्रेन्स होप इण्डिया की सह-संस्थापक हैं। वह www.lassiwithlavina.com ब्लॉग पर लिखती हैं। आप उन्हें @lavinamelwani पर फॉलो कर सकते हैं।