Comprehending Comprehension
आध्यात्मिक शक्ति प्राप्त करने के लिए उत्सुक एक पुत्र को पिता की सलाह
नीचे दिया गया भाग स. राधाकृष्णन के प्रमुख उपनिषद पुस्तक से छान्दोग्य उपनिषद के अध्याय सात का अनुवाद है। यह उपनिषद सामवेद से सम्बन्धित है। अध्याय सात में उद्दालक आरुणि और उनके पुत्र श्वेतकेतु के बीच एक संवाद है। इन पदों को स्पष्टता के लिए सम्पादित किया गया है।
१७. उद्दालक आरुणि: “जब कोई समझ जाता है, तब वह सत्य बोलता है। वह जो नहीं समझता है, सत्य नहीं बोलता है। केवल वह जो समझता है वही सत्य बोलता है। लेकिन बोध प्राप्त करने की इच्छा होनी ही चाहिए।” “पिताजी, मुझमें बोध प्राप्त करने की इच्छा है,” श्वेतकेतु ने कहा।
१८. “जब कोई सोचता है, तो वह समझता है, जो नहीं सोचता वह नहीं समझता है। केवल समझता है जो सोचता है। लेकिन चिन्तन को समझने की इच्छा होनी चाहिए।” “पिताजी, मुझमें चिन्तन को समझने की इच्छा है।”
१९. “जब किसी के पास आस्था होती है, तब वह सोचता है। जिसमें आस्था नहीं होती वह नहीं सोचता है। केवल वही सोचता है जो आस्था रखता है। लेकिन आस्था को समझने की इच्छा होनी चाहिए।” “पिताजी, मुझमें आस्था को समझने की इच्छा है।”
२०. “जब किसी के अन्दर दृढ़ता होती है, तो उसके अन्दर आस्था होती है। वह जिसके अन्दर दृढ़ता नहीं होती, उसमें आस्था है। केवल उसी के अन्दर आस्था होती है, जिसमें दृढ़ता होती है। लेकिन दृढ़ता समढने की इच्छा होनी चाहिए।” “पिताजी, मुझमें दृढ़ता को समझने की इच्छा है।
२१. “जब कोई सक्रिय होता है, तो उसके अन्दर दृढ़ता होती है। बिना सक्रिय हुए, दृढ़ता नहीं होती। केवल सक्रियता से दृढ़ता आती है। लेकिन सक्रियता समझने की इच्छा होनी चाहिए।” “पिताजी, मुझमें सक्रियता को समझने की इच्छा है।
२२. “जब कोई प्रसन्न होता है, तो वह सक्रिय होता है। जिसे प्रसन्नता नहीं मिलती, वह सक्रिय नहीं होता। केवल वही सक्रिय होता है, जिसमें प्रसन्नता होती है। लेकिन प्रसन्नता समझने की इच्छा होनी चाहिए।” “पिताजी, मुझमें प्रसन्नता को समझने की इच्छा है।”
२३. “अनन्त प्रसन्नता है। किसी भी लघु या निश्चित चीज़ में प्रसन्नता नहीं है। लेकिन अनन्त को समझने की इच्छा होनी चाहिए। “पिताजी, मुझमें अनन्त को समझने की इच्छा है।”
२४.१. “जहाँ किसी को कुछ और नहीं दिखाई देता, कुछ और नहीं सुनाई देता, कुछ और समझ में नहीं आता, वह अनन्त है। जहाँ किसी को कुछ और दिखाई देता है, कुछ और सुनाई देता है, कुछ और समझ में आता है, वह लघु है, वह निश्चित है। वास्तव में, अनन्त अनश्वरता के समान है, निश्चितता नश्वरता के समान है।” “पिताजी, अनिश्चितता किस पर खड़ी होती है?” उद्दालक: “अपनी स्वयं की महानता पर या महानता पर बिल्कुल नहीं।”
२४.२. “यहाँ पृथ्वी पर पुरुष गाय और घोड़े, हाथियों और सोने, दासों और पत्नियों, खेतों और घरों को “महानता” समझता है। मैं इस तरह बात नहीं करता”, उन्होंने कहा, “क्योंकि ऐसी स्थिति में हर चीज़ दूसरे पर स्थापित होती है।
२५.१. “वह अनन्त निश्चित तौर पर नीचे है। यह ऊपर है। यह पीछे है। यह दक्षिण में है, यह उत्तर में है। यह वास्तव में सम्पूर्ण विश्व में है। किसी के वास्तविक स्व के अनुभव के सन्दर्भ में, मैं वास्व में, नीचे हूँ। मैं ऊपर हूं, मैं पीछे हूं, मैं सामने हूँ। मैं दक्षिण में हूँ, मैं उत्तर में हूँ; मैं इस पूरे विश्व में हूँ।”
२५.२. “अब अगला निर्देश स्व के सम्बन्ध में है। स्व वास्तव में नीचे है, ऊपर है, पीछे है, आगे है, दक्षिण में है, उत्तर में है। स्व, वास्तव में, सम्पूर्ण विश्व है। वे जो इसे देखते हैं, वे जो इसे सोचते हैं, जो इसे समझते हैं—उन्हें स्व में आनन्द की प्राप्ति होती है। वे स्व से प्रसन्न हो सकते हैं। उनके स्व में एकता है। उन्हें स्व में आनन्द मिलता है। वे स्वयं अपने, स्वतन्त्र तौर पर स्वयं को शासित करते हैं। उन्हें पूरे विश्व में असीमित स्वतन्त्रता मिलती है। लेकिन वे जो इससे अलग तरह से सोचते हैं, वे दूसरों पर निर्भर होते हैं, उन पर दूसरे शासन करते हैं। वे नाशवान विश्व में रहते हैं जिसके बीच वे यात्रा नहीं कर सकते।”
२६.१. “ उनके लिए जो इसे समझते हैं, प्राणवायु स्व से उत्पन्न होती है, आशा स्व से, स्मृति स्व से, ईथर स्व से, ऊष्मा स्व से, जल स्व से, उपस्थिति और अनुपस्थित स्व से, भोजन स्व से, खाद्य स्व से, शक्ति स्व से, समझ स्व से, ध्यान स्व से, चिन्तन स्व से, निर्धारण स्व से, मन स्व से, वाक् स्व से, नाम स्व से, पवित्र मन्त्र स्व से, वास्तव में पूरा अस्तित्व ही स्व से होता है।”
२६.२. “इस पर निम्नलिखित पद है: ‘वह जो इसे देख लेता है, उसे मृत्यु या बीमारी या कोई दुःख नहीं होता। वह जो इसे देखता है वह हर चीज़ को देखता है और हर जगह सब कुछ प्राप्त कर लेता है। वह जो एक है, वह तीन गुना, पाँच गुना, सात गुना और नौ गुना तक हो जाता है। फ़िर उसे ग्यारह गुना, फ़िर एक सौ ग्यारह गुना और फिर बीस हजार गुना भी हो जात है। जब पोषण पवित्र होता है, तो प्रकृति पवित्र होती है। जब प्रकृति पवित्र होती है, स्मृति स्थिर हो जाती है। जब स्मृति स्थिर होती है, जो हृदय के सभी गाँठों से मुक्ति मिलती है। वह जिसने अपने सभी दाग मिटा लिये हैं, आदरणीय सनतकुमार उसे अँधेरे के अगले तटों के दर्शन कराते हैं। उसे वे स्कन्द कहते हैं।’”
सर्वपल्ली राधाकृष्णन (१८८८-१९७५) एक भारतीय दार्शनिक और राजनेता, भारत के प्रथम उपराष्ट्रपति (१९५२–१९६२) और द्वितीय राष्ट्रपति (१९६२–१९६७) थे।