Confronting Gender Stereotypes
पल्लू ढँकने का उदाहरण
क्या वे धार्मिक विश्वासों ,परम्पराओं या सामाजिक ताकतों से संचालित होती हैं?
शाइना ग्रोवर, कैलीफ़ोर्निया
पूरे इतिहास में, समाज में महिलाओं की भूमिका स्थानस संस्कृति और समयावधि के हिसाब से लगातार बदलती रही है। हालांकि, एक बार-बार आने वाली पृष्ठभूमि यह रही है कि, प्रायः, महिलाओं को पुरुषों के समान अधिकार बहुत बाद में मिले हैं, या बिल्कुल नहीं मिले हैं। यहाँ तक कि यूनाइटेड स्टेट्स में भी, जहाँ “सभी मनुष्य समान बनाये जाते हैं”, महिलाओं के पास १९२० के दशक तक वोट देने का अधिकार नहीं था।
विभिन्न लिंगों के सम्बन्ध में आज के समाज में कुछ रूढ़ियाँ प्रचलित हैं जिसमें कुछ इतनी साधारण हैं जैसे नीला रंग लड़कों से जुड़ा है और गुलाबी रंग लड़कियों से, से लेकर इस विचार तक कि महिलाओं को घर पर रहना चाहिए और घर को सम्भालना चाहिए जबकि पुरुषों को परिवार के पालन-पोषण के लिए काम पर जाना चाहिए। या यह विचार कि परिवार की विरासत को आगे बढ़ाने के लिए बेटे का होना, बेटी के होने से बेहतर है। इन विचारों को वास्तव में समझने के लिए, हम यह ध्यान अवश्य देना चाहिए कि क्या यह विश्वास हमारे धार्मिक पहचान और सांस्कृतिक परम्परा से निकले हैं या वे सामाजिक अपेक्षाओं के परिणाम हैं।
जब हिन्दू समाज की बात होती है, धर्म लोगों के जीवन में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता है और उनके निर्णयों में केन्द्रीय भूमिका अदा करता है, इसीलिए यह प्रश्न कि ये विचार कहाँ से उत्पन्न होते हैं और भी अधिक महत्वपूर्ण है।
पिछले कुछ महीनों में, मुझे लैंगिक रूढ़ियों और हिन्दू संस्कृति पर दो व्यक्तियों से चर्चा करने का अवसर प्राप्त हुआ था, जिसमें से प्रत्येक के पास खास तरह का दृष्टिकोण था। मेरा पहला साक्षात्कार अनु सिंह के साथ था, जो २२ वर्षीय अविवाहिता हैं और राइस यूनिवर्सिटी से स्नातक हैं, जो जल्द ही चिकित्सा की पढ़ाई की योजना बना रही हैं। वह “क्या सामाजिक समस्या है और क्या धर्म से सम्बन्धित है” की पहचान की अवधारणा की व्याख्या करती हैं। जब हिन्दू धर्म की बात होती है, इस बात का उल्लेख करते हुए कि हिन्दू देवी माता (देवी) की पूजा करते हैं, वह कहती हैं कि अन्य संस्कृतियों की तुलना में महिलाओं का बहुत अधिक प्रतिनिधित्व है। एक उदाहरण नवरात्रि हो सकता है जो वर्ष भर में दो बार पड़ा है और यह अनिवार्यतः देवी माता का नौ दिन का उत्सव है, जिसके नौवें दिन परिवार की पुत्रियों की पूजा के लिए उत्सव होता है। दूसरी ओर, वह सहमत हैं कि लैंगिक रूढ़िवादिता के मामले में हिन्दू समाज में समस्याएं हैं, लेकिन वह कहती हैं कि हम “हिन्दू धर्म पर आरोप नहीं लगा सकते हैं।” इसके अलावा, सिंह कहती हैं कि भारत में मुगल आक्रमण से पूर्व, “महिलाओं के पास बहुत से अधिकार थे।” जब मुगलों ने आक्रमण किया, तो उन्होंने महिलाओं के प्रति बिल्कुल दया नहीं दिखाई और उनके साथ दुर्वयवहार करने लगे, जिसका परिणाम हुआ कि उन्हें “सुरक्षित” रखने के लिए गम्भीर क़दम उठाये गये। उनसे कोई सार्वजनिक जीवन न रखने की उम्मीद की जाती थी, न ही उन्हें कोई रोज़गार करने की अनुमति थी। दुर्भाग्य से, ये प्रतिबन्ध मुगल साम्राज्य के पतन के बाद भी नहीं हटाये गये, और उनका प्रभाव आज भी देखा जा सकता है।
अनु सिंह
इस बारे में सोचते समय कि महिलाओं के प्रति के प्रति व्यवहार कैसे बदला है, वह कहती हैं, “आज महिलाओं के पास हमारे दादा-दादी के समय की तुलना में कहीं ज़्यादा अवसर हैं। बहुत पहले की बात नहीं जब किसी महिला के लिए विश्वविद्यालय में जाना या रोज़गार पाना इतनी आम बात नहीं थी। उस समय समाज अलग था और यह अपेक्षा की जाती थी कि महिला बच्चों की देखभाल करने के लिए घर पर रहेगी।” हालांकि, सिंह के दादा-दादी दोनों के पास कॉलेज की डिग्री थी और उसके दादी के पास अध्यापक की नौकरी भी थी, जो कि उस समय आम बात नहीं थी; लेकिन आजकल, अधिक महिलाओं के पास रोज़गार में आने का अवसर है।
हिन्दू समाज में लैंगिक रूढ़िवादिता के बारे में बातचीत करते समय जो एक मानक विषय के रूप में उभरता है, वह है दहेज। सिंह कहती हैं कि दहेज की मंशा यह सुनिश्चित करना था “कि लड़की को अपने माता-पिता की सम्पत्ति में उसका भाग मिलना चाहिए।” यह मूलतः घूसखोरी नहीं थी, बल्कि यह सुनिश्चित करने का एक तरीका था कि लड़की अपने पति के घर में आराम से रह सके। लेकिन, “इस प्रथा का पतन हो गया और इसके कुछ बुरे परिणाम आने लगे।”
वास्तव में, सिंह का मानना है कि हर चीज़ को सत्ता की गतिकी के अनुसार देखना और यह निर्धारित कर लेना कि एक “शोषक” है और एक “शोषित” है, ऐतिहासिक तौर पर सही जानकारी नहीं देता है। देवी और देवताओं की कहानियों के शब्दों में, इस तरह का दृष्टिकोण सही चित्र नहीं दर्शाता। उनका मानना है कि यह धर्म की गलती नहीं है बल्कि सामाजिक परिस्थितियाँ हैं जो जिसने आज अलग लैंगिक रूढ़ियों को उत्पन्न किया है।
शादी के दौरान दुल्हन के माथे पर सिन्दूर लगाना एक परम्परा है जो अतीत में सिन्धु घाटी से जुड़ती है। शटरस्टॉक
मेरा दूसरा साक्षात्कार पलक मलिक के साथ था, जो ३५ वर्षीय दृश्य संचार विशेषज्ञ हैं, दिल्ली की क्रिएटिव एजेंसी के लिए काम करती हैं। वह शादीशुदा हैं और एक उन्नत व्यावसायिक डिग्री ले रही हैं। मलिक ने साझा किया, “लैंगिक रूढ़िवादिता की समस्या समाज में बहुत गहराई से पैठी हुई है और यह बहुत हद तक पितृसत्ता से सम्बन्धित है, विशेष रूप से उस वातावरण में जहाँ मैं बड़ी हुई हूँ। इन बेड़ियों को तोड़ना कठिन है भले ही आप अधिक पढ़े-लिखे परिवार से सम्बन्ध रखते हों।” वह कहती हैं कि कुछ छोटे-मोटे प्रतिबन्ध थे जो उनके जीवन में उनकी लिंग की वजह से थे, चाहे यह भाषा हो, पहनावा हो या उनके व्यवहार के अन्य पहलु हों। “यह सचमुच हर समय आपके सामने रहता है।” वह ध्यान देती हैं कि पुरुष हमेशा “पितृसत्तात्मक ढाँचे को लागू करने वाले” प्रमुख “संरक्षक” रहे हैं , और एक महिला का सम्मान हर समय उसके परिवार में पुरुष की प्रतिष्ठा से जुड़ा होती है। परिणामस्वरूप, महिलाओं में उनके ऊपर थोपी जाने वाली चीज़ों में से कम से कम कुछ को पालन करने की प्रवृत्ति होती है।
मलिका का मानना है कि “हिन्दू धर्म जीवन जीने का एक तरीका है और आप धर्म में पैदा होने के कारण हिन्दू होते हैं”, इसी कारण से यह पहचानना कठिन है कि आदर्श हिन्दू व्यक्ति असल में क्या है, क्योंकि हर किसी के लिए आदर्श अलग-अलग होता है। उदाहरण के लिए, जबकि उनके दादाजी के हिन्दू धर्म का विचार राष्ट्रवाद के साथ मिला हुआ था, उनकी दादी का हिन्दू धर्म का विचार ज़्यादा कर्मकाण्डीय था।
सिहं की तरह, मलिक का मानना है कि हिन्दू धर्म का पितृसत्तात्मक ढाँचा एक बड़ी सामाजिक समस्या है जो धर्म से परे जाता है, वह कार्यस्थल पर लैंगिक रूढ़िवाद और वेतन में अन्तर के उदाहरण का उल्लेख करती हैं। इसके अलावा, बॉलीवुड और मीडिया इन लैंगिक रूढ़ियों का सामान्यीकरण करता है क्योंकि वे लाखों लोगों को “पुरुषों जैसे घूरने की दृष्टि” प्रदान करते हैं।
पलक मलिक
हमने विभिन्न लैंगिक रूढ़ियों पर स्थान के प्रभाव सम्बन्धी विचार पर चर्चा की। मलिक दिल्ली में लगभग ३० वर्ष रही हैं और कहती हैं कि चूंकि वह दिल्ली में रहती हैं, यदि वह सड़क पर चलते समय किसी व्यक्ति को अपने पर देखता हुआ पायेंगी, वह मान लेंगी कि उन्हें नुकसान पहुँचाने का इरादा है, बस इसलिए कि वह वहाँ रहती हैं। दूसरी ओर, हैदराबाद या मुम्बई में, वह जानती हैं कि वह “किसी भी समय और कहीं भी अकेली जा सकती हैं और कोई उन्हें परेशान नहीं करेगा,… जबकि दिल्ली में मुझे ५,००० बार इस बारे में सोचना पड़ता है कि कहीं मैं खुद को ख़तरे में तो नहीं डाल रही हूँ।” इस तथ्य को ध्यान में रखना जरूरी है कि बहुत सी महिलाएँ इस तरह के वातावरण में बड़ी होती हैं जहाँ वे अपने लिंग के कारण रात में बाहर जाने से डरती हैं, जबकि पुरुषों के पास अधिक स्वतन्त्रता है। इससे भी अधिक, एक उच्चतर सामाजिक-आर्थिक वर्ग के सदस्य होने के अपने अनुभव की तुलना गाँव में रहने वालों से करते हुए, वह कहती हीं कि वह “कल्पना ही नहीं कर सकतीं कि गाँव में लैंगिक रूढ़ियाँ कितनी अधिक हैं।”
दहेज के मुद्दे पर, वह एक आँकड़ा साझा करती हैं कि भले ही दहेज की प्रथा १९६१ से अवैध है, यह भारत में ९५% शादियों का हिस्सा है। “ऐसी महिलाएँ हैं जिन्हें अपनी पूरी ज़िन्दगी का बहुत अधिक हिस्सा पल्लू [साड़ी का सिरा जो सिर के ऊपर खींचा जाता है और चेहरे के कुछ भाग को ढँकता है] या घूँघट [चेहरे को ढँकने वाला एक पर्दा] में व्यतीत करना पड़ता है।”
इसके साथ ही, मलिक ध्यान देती हैं, भले ही महिलाओं को शिक्षा प्राप्त करने के अधिक अवसर मिल रहे हैं और कार्यबल में महिलाओं की भागीदारी में वृद्धि हुई है, बहुत सी महिलाएँ अभी भी अपनी “घरेलु ज़िम्मेदारियों” के कारण पढ़ाई बीच में छोड़ देती हैं, जो अभी भी मौजूद लैंगिक रूढ़ियों को दर्शाता है। एक बुनियादी बात जो वह उठाती हैं, यह है कि “भारत में जो सच है, उसका ठीक विपरीत भी सच है।” उदाहरण के लिए, यद्यपि कुछ महिलाएँ स्कूल बीच में छोड़ देती हैं, और अधिक महिलाएँ रोज़गार में आ रही हैं। या हालांकि हो सकता है कि किसी एक क्षेत्र में समानता हो, अगले क्षेत्र में निश्चित ही अधिक पितृसत्तात्मक ढाँचा होगा। महिलाओं और पुरुषों की भूमिकाओं में सुधार हुआ है क्योंकि लोग इस विचार से दूर हटे हैं कि पुरुष घर पर कार्य नहीं कर सकते या बच्चों की देखभाल के लिए केवल महिलाओं को त्याग करना पड़ सकता है। सूचनाओं तक पहुँच में वृद्धि और इस नये डिजिटल युग ने अधिक स्वतन्त्रता और समानता के लिए मार्ग तैयार किया है। फिर भी, “इससे पहले कि हम किसी प्रकार की वास्तविक समानता प्राप्त कर सकें, आगे जाने के और भी रास्ते हैं।”
हिन्दू धर्म के कर्मकाण्डीय भाग के पदों में, विशेष तौर पर दृश्य पहलुओं के मामले में, जब महिलाएँ नवविवाहिता होती हैं, यह संस्कृति का हिस्सा होता है कि वे यह बताने के लिए कि उनकी शादी हो गयी है और अब वे अकेली नहीं हैं, चूड़ा (चूड़ियों का सेट) पहनती हैं जैसे कि “हर कोई जानना चाहता हो”, लेकिन पुरुषों के लिए कोई विभेद नहीं है। एक शादीशुदा महिला बिन्दी, अपने बालों के बीच में सिन्दूर, आदि पहनती है, जो उन महिलाओं के बीच एक दृश्य विभेद उत्पन्न कर देता है जो शादीशुदा हैं और जो शादीशुदा नहीं हैं, जबकि पुरुषों के लिए ऐसा कुछ नहीं है। हालांकि पुरुषों के लिए कुछ सांस्कृतिक प्रथाएँ यह दर्शाने के लिए रही हैं के वे शादीशुदा हैं, लेकिन वे आम तौर पर आजकल नहीं दिखाई देती हैं। कुछ के लिए, यह अपने पहनावे के माध्यम से स्वयं को अभिव्यक्त करना उनकी आज़ादी पर अंकुश हो सकता है।
मलिक ने बताया कि बहुत सी महिलाएँ करवा चौथ मनाती हैं, जब वे अपने पति की लम्बी आयु के लिए व्रत रखती हैं। वे अपने व्रत का समापन अपने पति और चन्द्रमा की आरती से करती हैं। दूसरी तरफ़ पुरुषों को अपनी पत्नियों के लिए कोई व्रत नहीं रखना पड़ता है। बेशक, एक सम्बन्ध में हिन्दू महिला और पुरुष से क्या अपेक्षा की जाती है इसमें भेदभाव है। लेकिन, आजकल जब लोग अधिक प्रगतिशील हैं, कुछ पुरुषों ने भी अपनी पत्नियों के लिए करवा चौथ पर व्रत रखना शुरु कर दिया है।
मैं व्यक्तिगत तौर पर मानती हूँ कि लैंगिक रूढ़िवाद एक बड़ी सामाजिक समस्या है जो धर्म से नहीं निकलती। लैंगिक भेदभाव या पुरुषों और महिलाओं से अलग-अलग अपेक्षाओं के कुछ छोटे उदाहरण हो सके हैं जो हिन्दू धर्म में भी मिल सकते हैं, लेकिन ऐसे भी मौके हैं जहाँ महिलाओं को हिन्दू संस्कृति में पुरुषों से अधिक महित्व दिया जाता है। कुछ परिवार के सदस्यों से बात करने में, मैंने पाया कि उन्होंने रूढ़िवादिता के कई उदाहरण दोस्तों के साथ देखे हैं जो उनसे पूछते हैं कि वे दो बेटियों के बाद एक बेचा क्यों नहीं चाहते हैं, लेकिन वे जिस वातावरण में बड़े हुए हैं उसमें लड़कियों की तुलना में लड़के को कोई अतिरिक्त महत्व नहीं दिया जाता है। फ़िर भी वे सभी सहमत हैं कि लैंगिक रूढ़िवादिता समाज में धर्म की बजाय अधिक प्रचलन में है। जैसे-जैसे अधिक से अधिक लोग सोचने के आधुनिक तरीकों को अपनाते जाते हैं, समाज और धर्म दोनों में पुरुषों और महिलाओं में अधिक समानता होती है, भले ही सच्ची समानता प्राप्त करने से पहले बहुत लम्बा रास्ता तय करना हो, इससे अन्तर नहीं होता कि आप विश्व में कहाँ रहते हैं।
लेखक के बारे में
मिनिसोटा में पैदा हुई शाइना ग्रोवर, इरविन, कैलीफ़ोर्निया में नॉर्थवुड हाई स्कूल में कनिष्ठ हैं। उनकी रुचि एसटीईएम में है और वह यात्रा करना, नृत्य करना, पढ़ना और वॉयलिन बजाना पसन्द करती हैं। grover.shaina514@gmail.com