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आज के वैश्विक संचार के युग में , हम व्यक्ति के स्वभाव के बारे में,  नियमित रूप से विभिन्न प्रकार के विचारों का सामना करते हैं.  इसके एक चरम पर , हर व्यक्ति स्वाभाविक रूप से कमजोर, अपूर्ण , पापमय एवं बिना ईश्वरीय मुक्ति के है एवं असहाय रूप से ऐसा ही  रहेगा. इसके दुसरे चरम पर हर व्यक्ति स्वाभाविक रूप से ईश्वरीय है.

यह एक उन विषयों में से है जिनके बारे में मैंने कर्रिब्बेअन के हिन्दुओं से अगस्त २०११ में बात की थी. मुझे त्रिनिदाद में पिछले वर्ष यह बताया गया कि यह सन्देश – “तुम पापी हो जिसे मुक्ति की आवश्यकता है “- जोरदार तरीके से आगे बढाया जा रहा है , हिन्दुओं का धर्म परिवर्तन करने के लिए. मुझसे अक्सर पूछा जाता है , “हमें क्या कहना चाहिए जब हम मजबूत इरादों वाले ईसाई मत के प्रचारकों द्वारा इस तर्क को प्रस्तुत किया जाये ? इस पर हिन्दू सोचने का तरीका क्या है ?” आइये हम अपने दृष्टिकोण को परिभाषित करने के लिए प्रमुख स्वामियों के तीन उद्धरणों क़ी खोजबीन करें.

पहला स्वामी विवेकानंद के विश्व धर्म  संसद  १८९३ के उदबोधन से है , जिसमे उन्होंने धड़ल्लेदार  तरीके से सच क़ी पुष्टि की जैसे वे उसे देखते हैं : ” होना और बनना एक ही वास्तविकता के विभिन्न पहलु हैं और केवल हमारी बुद्धि के सापेक्ष हैं. व्यक्ति में ईश्वरीय अनुभूति एवं आध्यत्मिक सम्पूर्णता को प्राप्त करने का आश्वासन एवं संभावना हैं एवं इसलिए वेह  बनता हुआ भगवान है ; क्योंकि उसकी मानवीयता एक समझने की चीज़ है सिर्फ तभी जब वो भगवान की अभिव्यक्ति के रूप में मानी जाये. इसलिए यह मनुष्य की प्रकृति के लिए अपमानजनक होगा अगर उसे पापी बताया जाय.  इसके इलावा भगवान एकमात्र एवं उच्चतम वास्तविकता है , एक बाहरी पाप जैसा तत्व कैसे उसके पवित्र स्थल पर अतिक्रमण कर सकता है ? हिन्दू आपको पापी कहने को मना करते हैं. आप जो दिव्या आत्माएं हैं इस पृथ्वी पर, क्या पापी हैं ? मनुष्य को ऐसा कहना पाप है ! यह मानव स्वाभाव की जबरदस्त निंदा है.”

चिन्मय मिशन के संस्थापक स्वामी चिन्मयानन्द नें समझाया : ” मनुष्य अनिवार्य रूप से ईश्वरीय है. पर उसके भीतर का देवत्व छिपा है इछाओं एवं विचारों की ना टूटने वाली श्रंखला में जो उसके ह्रदय में उत्पन्न होती है. विभिन्न प्रकार की इसकी श्रेणियों एवं एकाग्रता से विभिन्न प्रकार के मनुष्य उत्पन्न होते हैं. इच्छाओं एवं विचारों की मज़बूत परतों को हटाना और मनुष्य के अन्दर की दिव्यता को उजागर करना ही सभी शास्त्रों द्वारा परिकल्पित प्रमुख उद्देश्य है.”

सतगुरु सिवाय सुब्रमुनियस्वामी , मेरे गुरुदेव एवं हिंदुइस्म टुडे के संस्थापक नें हमारी ईश्वरीय प्रकृति का सारगर्भित विवरण दिया है : ” भीतर गहराई में हम इस क्षण निपुण हैं, और हमें इस निपुणता को खोजना  और इस तक जीना है इस निपुणता को सम्पूर्ण बनाने के लिए. हमने इस भौतिक शरीर में जनम लिया है ताकि हम अपनी  ईश्वरीय संभावना के लिए बढें और विकसित हों. आंतरिक रूप से हम पहले ही भगवान के साथ जुड़े हुए हैं. हमारे धर्म के पास वो ज्ञान निहित है कि कैसे इस एक होने का एहसास करें और अनचाहे अनुभवों को इस रास्ते से जाते हुए ना होने दें.”

मनुष्य कि प्रकृति पर यह विपरीत दृष्टिकोण – पापी और ईश्वरीय – खुल कर एक दुसरे के सान्निध्य में २०१२ में मिडलैंड , टेक्सास में हुए एक अंतर धर्म पेनल चर्चा में रखे गए जिसमे मैंने हिंदुइस्म का प्रतिनिधित्व किया. यह मुद्दा तब उठा जब पाँच धर्म के पादरियों नें इस प्रश्न पर अपने विचार रखे- “आपके धर्म में क्या मानवता को एक परिवार की तरह माना जाता है ?”

मेरा उत्तर था : “हिन्दू विश्वास जो विभिन्न नस्लों एवं राष्ट्रों में सहिशुनता जगाता है , के अनुसार सारी मानवता अच्छी है ; हम सभी ईश्वरीय प्राणी हैं, वो आत्माएं जिन्हें भगवान नें पैदा किया है. हिन्दू इस अवधारणा  को नहीं मानते कि कुछ व्यक्ति बुरे हैं और दुसरे अच्छे हैं. हिन्दू मानते हैं कि हर व्यक्ति एक आत्मा है, एक ईश्वरीय प्राणी है, जो कि स्वभाविक रूप से अच्छा है. शास्त्र हमें बताते हैं कि हर आत्मा भगवान से उत्पन्न होती है , जैसे कि एक चिंगारी आग से , एक आध्यात्मिक यात्रा कि शुरुआत करने के लिए जो भगवान की ओर वापिस ले जाती है. सब मनुष्य इसी यात्रा पर हैं, चाहे वे इसे महसूस करें या नहीं.”

अगले वाचक डॉ रंदेल एवेरेट जो कि बाप्टिस्ट ईसाई धर्म से थे , नें एक काफी अलग हट कर दृष्टिकोण रखा. “यह विचार कि सारी मानवता एक है – यह वो है जिस पर ईसाई धर्मं दुसरे धर्मों से अलग विचार रखता है. हम यह मानते हैं कि मानते हैं कि मानवता एक है , पर मानवता कि एकता यों हैं कि हम सब गिरे हुए लोग हैं. हम यह नहीं मानते कि हम स्वाभाविक रूप से अच्छे हैं. हम यह मानते हैं कि हम स्वाभाविक रूप से स्वार्थी एवं स्वयं केन्द्रित हैं और इसलिए हमें बचाए और छुड़ाया जाना चाहिए – और यीशु हमें अंधकार के क्षेत्र  से छुडाते हैं. ”

मनुष्य स्वाभाविक रूप से पापी नहीं है, इस हिन्दू विश्वास को करीब से देखते हैं- या फिर, मनुष्य का सार अध्यात्मिक एवं सम्पूर्ण है – एक और प्रश्न उठता है : “हिन्दू विचारधारा के हिसाब से पाप क्या है ?” गुरुदेव  डांसिंग विद शिवा में बताते हैं, ” बजाय इसके कि हम दुनियां में अच्छा और बुरा देखें , हम सन्निहित आत्मा कि प्रकृति के तीन एक दुसरे से जुड़े भागों को समझें : स्वाभाविक या भौतिक – भावनात्मक ; बौधिक या मानसिक ; और परा चेतन या अध्यात्मिक …….  जब बाहरी या नीचे की, स्वाभाविक प्रकृति प्रभावशाली होती है , व्यक्ति गुस्सैल होने की प्रवृत्ति रखता है , भय, लालच , ईर्ष्या, घृणा  एवं पीठ पीछे बुराई. जब बुद्धि प्रभावी होती है, अहंकार एवं विश्लेष्णात्मक चिंतन राज करता है. जब परा चेतन आत्मा सामने आती है , परिष्कृत गुणों का विकास होता है – करुणा, अंतर्दृष्टि  , नम्रता एवं ऐसे और भी गुण. युवा आत्मा के पाशविक स्वाभाव सशक्त होते हैं.  बुद्धि का विकास अभी नहीं हुआ होता, उपलब्ध नहीं होता सशक्त स्वाभाविक आवेगों का नियंत्रण करने हेतु. जब बुद्धि  का विकास हो जाता है , स्वाभाविक प्रकृति मंदी पड़ जाती है. जब आत्मा खुलती है  और अच्छी तरह विकसित बुद्धि के ऊपर छा जाती है, यह मानसिक संलग्नता ढीली हो कर हट जाती है.”

मनुष्य के तीन प्रकार की प्रकृति की समझ – स्वाभाविक, बौधिक एवं आध्यत्मिक- बताती है क्यों लोग इस तरह से कार्य करते हैं जो स्पष्ट रूप से दैवीय नहीं होते, जैसे कि गुस्सा हो जाना और दूसरों  को नुकसान पहुँचाना. मनुष्य के बारे में उसके सार और आन्तरिक प्रकृति के अलावा और कुछ भी है. हमारा एक बाहरी स्वाभाव भी होता है. जो भी हो , मनुष्य के कार्य , चाहे वे लाभदायक हों या नुकसानदायक, पापपूर्ण या दिव्य, सभी एक ही उर्जा कि अभिव्यक्ति हैं. वेह उर्जा हमारे चक्रों के द्वारा अभिव्यक्ति प्राप्त करती है, हमारे सुक्ष्म शरीरों में स्थित  चौदह चेतना के केन्द्रों से.

हम में से बहुत लोगों नें भारत के मंदिरों में पानी के इस्तेमाल किये जाने कि प्रणाली को देखा है : एक लम्बा पाइप जिसमें नलकियां होती हैं उसकी लम्बाई में जिससे बहुत से लोग पानी लेते हैं अपने हाथ और पैर धोने के लिए, मंदिर में जाने से पहले. यह एक सुन्दर उदाहरण हो सकता है उर्जा और चक्रों को ले कर. हमारा सुक्ष्म शरीर एक पाइप कि तरह है जिसके चौदह डाट होते हैं. पानी तो पानी है , वेह किसी भी डाट से बहार आ सकता है. वेह पानी ही तो है. उर्जा हमारे किसी भी चक्र से बहार आ सकती है ; वेह फिर भी उर्जा ही तो है.

ऊँचे चक्रों से उर्जा का प्रवाह परा चेतना या आध्यत्मिक प्रकृति की अभिव्यक्ति करता है. हम कैसे अपनी उर्जा पर नियंत्रण करें या उसे दिशा दें कि वो ऊँचे चक्रों से प्रवाहित होती रहे. गुरुदेव कहा करते थे, “उर्जा वहां जाती है जहाँ चेतनता का प्रवाह होता है.” हम अपनी उर्जा को नियंत्रित करते हैं लगातार ध्यान एवं भक्ति पूर्ण गतिविधियाँ द्वारा अपने घर के मंदिर में , जप, पूजा करने, पूजा में शामिल होने और नियमित रूप से मंदिर जाने से. परिष्कृत संगीत को सुनने एवं पारंपरिक नृत्य को करने एवं अन्य सृजनात्मक कलाओं करना भी तरीके हैं जिनसे उर्जा को उच्च चक्रों कि ओर मोड़ा जा सकता है.

हमारी नियमित गतिविधियाँ इस बात का फैसला करती हैं कि हमारी उर्जा का प्रवाह कैसा हो. अगर हम आध्यात्मिक बातों के अनुसरण में रत हैं , कभी कभी हम दैविक प्रेम के चक्र तक पहुँच सकते हैं. और उम्मीद होती है कि हम सीधे पहचान वाले चक्र तक पहुँचते हैं , जिससे हम अपने दिमाग को देख सकते हैं और समझ सकते हैं कि हम अपने बारे में क्या चाहते हैं और क्या नहीं चाहते और सक्रिय रूप से उसको बदलने के लिए कार्य कर सकते हैं जो हम नहीं चाहते. और हम संकल्प के चक्र तक पहुँच जाते हैं. यह वो गुण हैं जो कि हममें उजागर होते हैं अगर हम नियमित रूप से आध्यात्मिक एवं धार्मिक गतिविधियों में संलग्न रहते हैं.

अगर हम उर्जा को ऊपर कि तरफ नहीं उठाते हैं, तब हम एक साधारण जीवन जी रहे हैं जिसके प्रभावी केंद्र संकल्प , सोचना , समृति, शायद भय और कभी कभी गुस्सा हैं. अगर हम अव्यक्तिगत रूप से उर्जा के प्रवाह को देखें, तब हम उसे नियंत्रित कर सकते हैं उन गतिविधियों में संलग्न हो के जो हम स्वयं चुनें.

मैं यह कहना चाहता हूँ कि हमारा एक आन्तरिक सम्पूर्णता होती है एवं एक बाहरी असम्पूर्णता.  हमें कोशिश करनी चाहिए कि हम आतंरिक सम्पूर्णता से अधिक पहचान रखें , अपने आत्मिक स्वभाव से  , और समझें कि बाहरी  की अपनी समस्याएँ हैं, जिनपे हम कार्य कर सकते हैं – और यह हमारे जीवन का उद्देश्य भी है इस धरती पर, अपने आप पर कार्य करें, सीखें , ऊपर उठें और अंत में भगवान को जानें. इस रवैये से , जो कि हमारी दिव्यता में हमारे विश्वास से उपजा हो , हम अपनी कमियों एवं कठिनाइयों से ज्यादा निर्लिप्त हो जाते हैं. यह सिर्फ हमारे विभिन्न चक्रों से बह रही उर्जा है , अधिक पानी का बहाव है एक या दुसरे डाट के द्वारा. हम कौन हैं यह वो नहीं. हम महसूस करते हैं कि हम उर्जा के बहाव को नियंत्रित कर सकते हैं.  “मैं किस डाट को आज खोलूं ? में कैसे अपनी उर्जा को बहाना चाहता हूँ ? में किस नकारात्मक आदत को बेहतर बनाना चाहता हूँ ?” इस सब से सुलटना आसान हो जाता है क्योंकि इसे हम गैर व्यक्तिगत तरीके से देखते हैं.

चौदह चक्रों की अवधारणा  हमारी कमियों को उचित परिपेक्ष में रखने में सहायक होती है, जिससे कि हम उनसे हतोत्साहित ना हों.  कमिंयां , जैसे कि कभी कभी दूसरों को तकलीफ पहुचाना , इस बात को बिलकुल बदलता नहीं है कि हम सार रूप में ईश्वरीय हैं. हम आन्तरिक अध्यात्म के अनुभवों को गहरा कर सकते हैं और कमियों पर विजय पा सकते हैं , नियमित रूप से हिन्दू धर्म में पाई जाने वाली  पद्धतियों को अपना के. जब हम अपने बारे में अच्छा महसूस करें , हम ज्यादा आसानी  से नकारात्मक सांचों को पहचान सकते हैं और बदल सकते हैं. अगर हमारी स्वयं के बारे में अवधारणा नकारात्मक है , हम यह मानते हैं कि हम आन्तरिक रूप से गलत हैं और पापमय हैं , हम आध्यात्म के मार्ग पर प्रगति करने के लिए अच्छी अवस्था में नहीं हैं. और एक चीज़ जिसके बारे में हम अच्छा महसूस कर सकते हैं वो यह है कि हिंदुइस्म हमें आश्वस्त करता है ना केवल यह कि हम पापी नहीं हैं , किन्तु हर मनुष्य , बिना किसी अपवाद के , आध्यत्मिक प्रबुधता एवं मुक्ति पाने के  भाग्य को निश्चित रूप से  लिए हुए है.

“एक ऐसी भावना  है जो शुद्ध है और बुढ़ापे और मृत्यु से परे है,  और भूख एवं प्यास एवं दुःख से परे है. यह आत्मां है जो मनुष्य के अन्दर की भावना है. जब आप दुसरे व्यक्ति कि आँखों में देखते हैं , वही आत्मां है , कभी नष्ट ना होने वाली , भय के परे, वेह भगवान है. ”
साम वेद, छान्दोग्य उपनिषद् ८.७.३-4