प्रकाशक के डेस्क से
संस्कृति के स्रोत के रूप में मंदिर
______________________
घर के मंदिर को चेतनता पूर्वक मंदिर से जोड़ने से परिवार को परंपरा को सँभालने एवं रिश्तों को मज़बूत करने में सफलता मिलती है
______________________
द्वारा सतगुरु बोधिनाथा वेय्लान्स्वामी
Read this article in:
English |
Hindi |
Gujarati |
Italian |
Marathi |
सन १९७५ से २००१ , लगभग पच्चीस वर्षों तक हिन्दुइस्म टुडे के संस्थापक सतगुरु सिवाय सुब्रमुनियस्वामी नें मंदिरों की स्थापना में मदद करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। गुरुदेव नें अमेरिका , कनाडा , ग्वाडेलोप, डेनमार्क, इंग्लैंड, फिजी, जर्मनी, मॉरीशस, न्यूजीलैंड, रीयूनियन, रूस, स्वीडन और श्रीलंका में ३७ मंदिरों को मार्गदर्शन प्रदान किया – प्रत्येक सम्प्रदाय या मंदिर को भगवान की एक प्रतिमा भेंट की , सामान्यतया भगवान गणेश , और जब आवश्यकता हुई तो मार्गदर्शन दिया। उन्होनें दर्जनों और मंदिरों की सहायता की उनके साथ अपना वैश्विक अनुभव और अपनी समुदायों का निर्माण करनें की समझ बांटी या फिर उनकी परियोजनाओं का हिंदूइस्म टुडे द्वारा प्रचार किया।
गुरुदेव नें उन संगठनो के मंदिर बनाने में इतनी उर्जा क्यों समर्पित की जिनसे उनके कोई औपचारिक सम्बन्ध नहीं थे ? उन्होंने ऐसा किया क्योंकि उनका दृढ विश्वास था कि वेह मंदिर ही हैं जो हिन्दू संस्कृति को चिरायु बनाते हैं। जैसा की उन्होंने व्याख्या की , कि हिन्दू अगर किसी देश में जायें और मंदिर नहीं बनाएं , तो कुछ पीढ़ियों के बाद उनकी बहुमूल्य संस्कृति खो चुकी होगी।
जुलाई २००० में हुए एक सत्संग के दौरान एक भक्त नें गुरुदेव से पूछा : ” हिन्दू संस्कृति को क्या हो रहा है ? ऐसा प्रतीत हो रहा है कि बॉलीवुड के अभिनेता और अभिनेत्रियाँ पश्चिम की ओर मुड़ रहे हैं और दूसरों को भी ऐसा करें के लिए प्रेरित कर रहे हैं। क्या हिन्दू संस्कृति , या भारतीय संस्कृति , ऐसा होने के बाद बहुत लम्बे समय तक बच पायेगी ?”
गुरुदेव नें जवाब दिया: “हम आज की दुनियां में देख सकते हैं कि जुझारू संस्कृति में – जहाँ लोग मिल के नहीं चल पाते पर कभी कभी मिल के चल पाने का दिखावा करते हैं जबकि वे मिल के नहीं चल रहे होते – यह आता है कार्यालयों से और कारखानों से और गैर धार्मिक गतिविधियों से. भारतीय संस्कृति भले ही भारत में नीचे जा रही हो किन्तु यह निश्चित रूप से पश्चिम में ऊपर आ रहीं है क्योंकि यहाँ मंदिरों में पूजा होती है. यह हमारा भगवान् , भगवानों एवं देवियों से रिश्ता है जो हमारे पुरुषों , महिलाओं एवं बच्चों से रिश्ते कायम करता है. दूसरों के प्रति संवेदनशीलता से संस्कृति आती है जैसा कि हम मंदिर के भीतर भगवानों की भावनाओं के प्रति संवेदनशील होते हैं और गर्भ ग्रह से निकलते हुए कम्पन से. अपने जीवन में धर्मं के न होने से एवं घर के मंदिर में धर्म का अभ्यास नहीं करने से , मंदिर में एवं किसी एक दूर जगह तीर्थ यात्रा पे वर्ष में एक बार न जाने से , संस्कृति तेजी से विफल होती है और प्रतिस्पर्धात्मक संस्कृति की शुरुआत हो जाती है. ”
उन्होंने आगे कहा, “जबकि बहुत से लोग हैं जो पाश्चात्य के सर्वश्रेष्ठ को सुदूर पूर्व में लाने का प्रयास कर रहे हैं , वहीँ पाश्चात्य में भी ऐसे बहुत हैं जो सुदूर पूर्व का सर्वश्रेष्ठ पाश्चात्य में लाने का प्रयत्न कर रहे हैं। जब तक धर्मं और पूजा और तीर्थ यात्रा के अभ्यास एवं हमारे धर्म की शुद्धता रहेगी , संस्कृति भी रहेगी। “
हिन्दू मंदिर एक शक्तिशाली अध्यात्मिक केंद्र की तरह कार्य कर सकते हैं और हिन्दू संस्कृति और भक्ति अभ्यासों को उन भक्तों के घरों और परिवारों के बीच ले जा सकते हैं जो मंदिर नियमित रूप से जाते हैं , कम से कम सप्ताह में एक बार. संस्कृति के सशक्तिकरण की प्रक्रिया कई स्तरों पर संपन्न हो सकती है.
सबसे बुनियादी बात मंदिर जाने से जुडी कई परम्पराओं और परिपाटियों को सीखना जो मंदिर जाने से जुडी हुई हैं। कोई भी श्रद्धालु हिन्दू , भगवान् के पवित्र घर को बिना उचित तयारी के नहीं जायेगा। सामान्य आवश्यकताओं में शामिल होंगे स्नान , साफ़ कपड़े पहनना और भेंट की एक थाली तैयार करना , जो कि साधारण दिन के लिए सामान्य होगी या फिर एक त्यौहार के लिए विस्तृत होगी। ये सब कार्य मंदिर जाने से जुड़े महत्वपूर्ण कार्य का हिस्सा हैं।
मंदिर में आगमन पर हम पैर धोते हैं और अपने जूतों को निर्दिष्ट तरीके से रखते हैं। इसके बाद देवताओं को प्रथानुसार नमन करते हैं , फिर एक प्यार भरे दिल से परिक्रमा करते हैं और अपनी भेंट को प्रस्तुत करते हैं। पूजा में भाग लेते समय पुरुष और महिलाओं का मंडप में अलग अलग बैठना एक आवश्यकता हो सकती है. संस्कार के दौरान मुख्य बिन्दुओं पर हम विशिष्ट तरीकों से पूजा करते हैं एवं अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हैं। जैसे जैसे बच्चे माता पिता के पारंपरिक रस्मों रिवाजों का पालन करते हैं , वे पूजा और पवित्र वस्तुओं के प्रति सराहना का विकास करते हैं , बड़ों के प्रति सम्मान , शारीरिक सफाई एवं मानसिक पवित्रता के महत्व की समझ का विकास और पारिवारिक एवं सांप्रदायिक भक्ति के प्रति स्नेह का विकास करते हैं।
सालों तक ऐसा अभ्यास करने के बाद , चरित्र के आवश्यक गुण मसलन विनम्रता एवं भक्ति गहरे हो सकते हैं। भक्ति के मायने यहाँ भगवान् से प्रेम से है. यह गुण जो हर सभ्य हिन्दू में मौजूद हैं , पश्चिम में पले बढे व्यक्ति में विकसित नहीं हो सकते जब तक कि वेह नियमित पूजा में भाग नहीं लेता।
मंदिर का दुसरे स्तर का प्रभाव शुरू होता है जब घर पर एक मंदिर स्थापित होता है और वहां प्रतिदिन पूजा की जाती है। जहाँ तक संभव हो , यह एक अलग कमरा होना चाहिए, न कि केवल एक कबिनेट या फिर शेल्फ में स्थित हो। इस तरह की समर्पित जगह घर में रहने वाले हरेक को भगवान् के बारे में अधिक सोचने , अपने व्यवहार पर चिंतन करने और गुस्सा या बहस कम करने की ओर उद्यत करती है , क्योंकि वे भगवान् की उपस्थिति में रह रहे होते हैं।
हर हफ्ते मंदिर जाने से दरअसल मंदिर की कुछ पवित्रता घर के मंदिर में आ जाती है। मेरे गुरु नें सिखाया कि मंदिर से लौटने के बाद एक तेल का दीपक घर के मंदिर में जलाने से मंदिर की शक्ति आपके घर में आ जाती है। इस भक्तिपूर्ण कार्य से जो देवता मंदिर में थे घर के मंदिर में आ जाते हैं , जहाँ वे अन्दर की दुनियां से परिवार को आशीर्वाद देते हैं एवं घर की रक्षा करते हैं।
मंदिर के तीसरे स्तर का सांस्कृतिक प्रभाव तब शुरू होता है जब एक परिवार का सदस्य , सामान्यतया पिता , घर पर नियमित रूप से पूजा करता है. एक अर्थ में , वेह परिवार का पुजारी बन जाता है, जो पुजारियों का अनुकरण करता है , जबकि वेह एक सरल , जनता के बीच न की जाने वाले कर्मकांड को करता है जिसे आत्मार्थ पूजा कहा जाता है। ऐसी भरपूर पूजा प्रतिदिन करने से घर के धार्मिक कम्पन में तेज़ी से मजबूती आती है।
यह सचमुच संयोग ही है कि पूजा समारोह की संरचना आतिथ्य की उदार भावना से उत्पन्न होती है जिसके लिए हिन्दू संस्कृति प्रसिद्ध है। सभी अतिथियों का भगवान् की तरह स्वागत किया जाता है और उनसे भगवान् की तरह का ही व्यव्हार किया जाता है और भगवान् कोई अपवाद नहीं होते। इस सुबह की प्रतिदिन पूजा अनुष्ठान के दौरान , परिवार के सदस्य पहले से ही ठीक प्रकार से नियुक्त घर के मंदिर में इकठा होते हैं भगवान् को अपने राजकीय अतिथि के रूप में सम्मान देने के लिए। वे उसका गर्मजोशी से स्वागत करते हैं , बैठने के स्थान की पेशकश करते हैं , उसकी प्यास बुझाने के लिए पानी की सेवा करते हैं , नहलाते हैं और उसको खुबसूरत पोशाक पहनाते हैं, उनको आनंदित करने के लिए बेहतरीन धुप जलाते हैं , प्रकाश, फूलों , जप और भोजन की भेंट से उनका सम्मान करते हैं. यह एक अंतरंग, व्यक्तिगत संपर्क होता है. सम्पूर्ण पूजा के दौरान पुरोहित मधुरता से देवता को संस्कृत में जप करके इन श्रधापुर्वक किये गए कृत्यों की व्याख्या करता है एवं नम्रतापूर्वक आशीर्वाद देने के लिए निवेदन करता है। अन्तातेह पुजारी देवता का उसकी उपस्थिति के लिए धन्यवाद करता है , उससे विदाई लेता है और नम्रतापूर्वक किन्ही भी अनजाने में की गई गलतियों के लिए क्षमायाचना करता है।
चौथे स्तर का मंदिर प्रभाव घर पर तब शुरू होता है जब घर का मंदिर काफी मजबूत हो जाता है जिससे हम मंदिर के मुख्य देवता , मसलन भगवन शिव या भगवान् वेंकटेश्वर को घर के मुखिया के रूप में महसूस करते हैं. जब ऐसा होता है , हम भगवान् को बिना पहले एक हिस्सा अर्पण किये भोजन करने की सोच भी नहीं सकते। हम स्वाभाविक रूप से सैदेव भगवान् की पूजा करना चाहेंगे , चाहे वेह संक्षिप्त रूप में ही हो, घर छोड़ने से पहले और वापस आने पर ।
हिन्दू संस्कृति को इस हद तक मजबूत करने के लिए , पूरे परिवार को शामिल होने की आवश्यकता होती है। स्पष्ट करने के लिए में एक कहानी बताता हूँ। हमारा एक श्रद्धालु सिंगापुर में रविवार सुबह एक समूह में होने वाली हिंदूइस्म कक्षाओ के लिए जिम्मेदार था। उसने पाया कि सामान्यतया माता पिता अपने बच्चों को छोड़ , दो घंटे की खरीददारी पे चले जाते थे ,वापिस आ के उन्हें ले जाते थे, सारा समय यह उम्मीद करके कि अध्यापक उनके बच्चो को बेहतर हिन्दू बना देंगे। जबकि यह दृष्टिकोण ललित कलाएं , मसलन नृत्य या किसी उपकरण का वादन सीखनें में कामयाब है , यह हिंदूइस्म के लिए कारगर नहीं है।
इसमें अंतर यह है। बच्चों के नृत्य या संगीत सीखने के लिए , माता पिता को नृत्य करना या उपकरण का वादन करना आये यह ज़रूरी नहीं है। यह इसलिए क्योंकि हिंदूइस्म एक सम्पूर्ण आध्यात्मिक जीवन जीने का तरीका है , जो परिवार के दैनिक एवं साप्ताहिक चर्या के हर पहलु के बारे में जानकारी देता है और केवल मात्र घर के मंदिर तक सीमित नहीं है। बच्चों का मंदिर में हिंदूइस्म सीखना महत्वपूर्ण है। परन्तु यदि अभिभावक भी अध्ययन में जुड़े हों , तब घर में हिन्दू संस्कृति और धार्मिक बातचीत को आगे बढाने की बहुत अधिक क्षमता होती है। वास्तव में , कुछ हिन्दू संगठन बच्चों को कक्षाओं में तब तक नहीं स्वीकार करते जब तक उनके अभिभावक भी वयस्कों के लिए चल रही सामानांतर कक्षाओं के लिए अपने नामांकन नहीं कराते।
में हिन्दू मंदिरों की तुलना एक बिजली वितरण प्रणाली से करना पसंद करता हूँ। कुआइ के दूरदराज हवाई द्वीप पर , जहाँ हम रहते हैं , यहाँ एक मुख्य बिजली उत्पादक संयंत्र है जिसकी पॉवर लाइनें पांच वितरण सब स्टेशन से जुडी हैं जिससे प्रत्येक क्षेत्र के उपभोक्ता जुड़े हैं। इसकी तुलना अध्यात्मिक उर्जा की उस किरण से की जा सकती है जो खगोलीय दुनियां [बिजली संयंत्र] से पाँच मंदिरों [सब स्टेशन] जो कि प्रत्येक जुडा है भक्तों के निवासों से जो वहां नियमित रूप से पूजा करते हैं [उपभोक्ता] . बिजली निवास में उजाला कर देती है और हर तरहं के उपकरणों को सशक्त कर देती है। मंदिर की उर्जा परिवार के पथ पर उजाला कर देती है और संस्कृति को जीवन्त कर देती है।
• • • • • • • • • • • • • • • • • • • • • • • • • •