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हिंदुइस्म का एक अनूठा पहलु यह है कि हर कोई एक पुजारी हो सकता है और अपने मंदिर की जिम्मेदारी सँभाल सकता है. वेह मंदिर आपके अपने घर का पूजा स्थल है , जिसे आप आध्यात्मिकता से भर सकते हैं या एक छोटे मंदिर के रूप में बदल सकते हैं उसमे रोजाना पूजा करने के द्वारा. यह प्रक्रिया बेहतरीन रूप से कार्य कर सकती है जब यह पूजा स्थल एक अलग कमरे में हो, जो कि सख्ती से पूजा एवं ध्यान के लिए आरक्षित हो, सांसारिक बातों एवं गतिविधियों से अछुता हो. वेह एक आदर्श होगा. अगर यह संभव नहीं है , तो कम से कम यह एक कमरे का शांत कोना – जो कि केवल मात्र एक साधारण शेल्फ या कोठरी ना हो. पूजा घर को परिवार के सभी सदस्यों की शरण स्थली बनाएं , एक जगह जहाँ शांति और सूकून हो जहाँ वे भगवान से जुड़ सकें एवं अपनी प्रशंसा , प्रार्थना और व्यावहारिक जरूरतों को समर्पित कर सकें.

दिवंगत श्री श्री श्री चंद्रसेखारेन्द्र सरस्वती , महा स्वामी जी , कांचीपुरम कामकोटी पीठं नें घर में की जाने वाली पूजा कि आव्यशक्ता के बारे में टिप्पणी की, “हर परिवार को इश्वर की पूजा करनी चाहिए. जिन्हें सुविधाजनक लगे उन्हें विस्तृत प्रकार की पूजा उचित दीक्षा लेने के बाद करनी चाहिए. दूसरों को केवल संक्षिप्त पूजा करनी चाहिए जो दस मिनट से ज्यादा देर तक की ना हो. कार्यालय जाने वालों को कम से कम यह संक्षिप्त पूजा करनी चाहिए. पवित्र घंटी हर घर में बजनी चाहिए.”

यहाँ एक कहानी है जो बताती है कि कैसे हमारे घर के पूजा घर में पूजा करने के प्रयास साधारण तौर पे शुरू होते हैं एवं धीरे धीरे अधिक व्यापक हो जाते हैं. शेखर परिवार हमेशा अपने घर में एक पूजा घर का कमरा रखता था. कुछ वर्षों के दौरान पति नें व्यवस्थित रूप से पूजा कैसे की जाये इसके विषय में अधिक से अधिक सीखा. शुरुआत में वे भगवान गणेश के लिए एक साधारण मंत्र बोल कर उनके समक्ष अगरबत्ती को लहराते थे. तदोपरांत उन्होंने कुछ और मंत्र सीखे और पूजा के बाद आरती का दिया दिखाने लगे. अंततः उन्होंने सम्पूर्ण गणेश आत्मार्थ पूजा सीख ली , जिसे अब वेह रोज नाश्ते से पहले करते हैं. वे इस संपूर्ण पूजा को करके एक गेहेरे संतोष का अनुभव करते हैं और मानते हैं कि इससे पुरे परिवार के सदस्यों का उत्थान होता है. [गणेश आत्मार्थ पूजा पूरे लेख एवं सुनने वाली फाइलों के साथ इस वेबलिंक पर उपलब्ध है- www.himalayanacademy.com/audio/chants/ganesha_puja/.

व्यक्तिगत पूजा के सम्बन्ध में

बहुत से लोग यह महसूस नहीं करते , परन्तु व्यक्तिगत पूजा, जिसे हम हिंदुइस्म की आचरण संहिता कहते हैं, का एक मौलिक तत्त्व है, इसमें यम, नियम या स्वयं पर नियंत्रण एवं इनका पालन करना शामिल है. और यह आचार संहिता , जिसमे अष्टांग योग के पहले और दूसरे कदम शामिल हैं, इसे अक्सर ध्यान कि नीवं के रूप में मन जाता है. पूजा, जो दस नियमों में से एक है , इश्वार्पूजना के रूप में जाना जाता है. यह उस पूजा की ओर इंगित करता है जो कि हम स्वयं के लिए करते हैं नाकि वेह संस्कार जो एक पुजारी हमारी ओर से करता है. यह पूजा जो घर के मंदिर में कि जाती है , केवल मात्र साधारण फूल के अर्पण से ले कर एक संपूर्ण एवं औपचारिक पूजा के करने तक हो सकती है. एक आम व्यक्ति द्वारा की गयी पूजा आत्मार्थ पूजा कहलाती है एवं उसे एक व्यक्तिगत पूजा अनुष्ठान मन जाता है ; जबकि जनमानस हेतु पुजारी द्वारा मंदिर में की गयी पूजा परार्थ पूजा कहलाती है. आत्मार्थ पूजा करने के बाद, प्रथानुसार कुछ मिनट ध्यान में बैठना चाहिए , आंतरिक पूजा करनी चाहिए, ताकि आत्मा तक परिष्कृत भावनाओं और प्राण उर्जा को ले जाया जा सके , जिन्हें पूजा नें उत्पन्न किया और जो कमरे में अभी तक हैं. इस प्रकार से, हम पूजा से अधिकतम लाभ प्राप्त कर सकते हैं.

मेरे गुरुदेव नें यह देखा कि कुछ लोग पूजा करने से डरते हैं. क्यों ? वे अक्सर महसूस करते हैं कि उनमें पर्याप्त प्रशिक्षण क़ी कमी है या वे इसके पीछे के रहेस्यमय सिद्धांतों को ठीक से नहीं समझ पाते हैं. बहुत से हिन्दू पूजा करने और संस्कारों के निर्वाह हेतु पुजारियों पर आश्रित होते हैं. लेकिन, गुरुदेव नें इंगित किया , और कांचीपुरम के महा स्वामी जी के अनुसार भी सरल पूजा उस किसी भी व्यक्ति द्वारा क़ी जा सकती है जो किसी भगवान, भगवानों या देवों क़ी कृपा पाने हेतु अनुग्रह एवं आवाहन करता है. देवता का प्यार कर्मकांडों क़ी परिपूर्णता से अधिक महत्वपूर्ण है. जो उच्च स्तर क़ी आत्मार्थ पूजा करना चाहते हैं वे इसका प्रशिक्षण लेने एवं इसकी अनुमति लेने के लिए , जिसे दीक्षा कहते हैं, सुयोग्य पुजारियों से प्राप्त कर सकते हैं.

गुरुदेव नें आत्मार्थ पूजा के करने पर एक महत्वपूर्ण प्रतिबन्ध रखा : “अगर क्रोध के एक गंभीर प्रकोप का अनुभव हो, तो व्यक्ति को एकत्तीस दिन तक पूजा करने से बचना चाहिए. इस दौरान धूप बत्ती को मूर्तियों को सामान्य तौर से दिखाने की अनुमति होगी, परन्तु दिए की लौ से पूजा ना की जानी चाहिए , ना ही घंटियाँ बजा के या कि किसी मंत्र का उच्चारण करके, केवल मात्र सरलता पूर्वक ॐ का जप किया जा सकता है.”

उन्होंने इस प्रतिबन्ध को यह जानते हुए लागु किया कि एक गुस्सैल व्यक्ति दूसरी दुनिया के, असुरों को आह्वान कर पायेगा जिससे के हम परेशान होंगे , वेह देवों काआह्वान नहीं कर पायेगा जो हमें आशीर्वाद देंगे. सच्चे मायनों में सफलता पूर्वक घर का आध्यात्मिकीकरण करने के लिए , इस बात कि आवश्यकता है कि गुस्से की अभिव्यक्ति को कम किया जाये एवं दोषपूर्ण भाषा का इस्तेमाल भी ना किया जाये. उदाहरण के तौर पर एक जटिल पहेली को सुलझाने के प्रयास को लें. पूजा करना दस जटिल पहेलियों को सैंकड़ो टुकडो की मदद से ठीक से एक साथ सुलझाने का कार्य करने के बराबर होगा. मामूली गुस्सा पांच भाग ले जायेगा , सामान्य दोषपूर्ण भाषा दो भाग एवं एक बड़ी बहस बीस भाग. स्पष्ट तौर से हम कभी भी पहेली को सुलझा नहीं पाएंगे, जब तक कि हम गुस्से एवं दोषपूर्ण भाषा पर नियंत्रण ना कर लें. हर दिन हम पूजा द्वारा दस टुकडो से पहेली का समाधान करने का प्रयास करेंगे. परन्तु अगर कोई बड़ी बेहेस हो जाती है तो ना केवल वो दस दुकड़े अलग हो जाते हैं, अपितु दस और भी अलग हो जाते हैं, नतीजतन आप वहीँ पीछे छूट जाते हैं जहाँ आपने दिन की शुरुआत की थी. दुसरे शब्दों में , बहुत अधिक निष्ठां पूर्वक भी अगर हम प्रयास करेंगे , अपने घर को अध्याताम्मय बनाने का, वेह सफल नहीं होंगे अगर हम गुस्से के विस्फोट एवं दोषपूर्ण भाषा द्वारा उसको नाकारा कर देंगे.

संपर्क में रखते हुए

सभी हिन्दुओं के संरक्षक देवता होते हैं जो सूक्ष्म स्तर पर रहते हैं और उनके जीवन को मार्ग दर्शन, संरक्षण एवं सुरक्षा प्रदान करते हैं. पूजा घर ऐसे दिखाई नाँ देने वाले मेहमानों की एक जगह है , एक कमरा है जहाँ पूरा परिवार प्रवेश कर सकता है एवं इन परिष्कृत प्राणियों से आतंरिक संवाद स्थापित कर सकता है , जो कि परिवार को पीढ़ी दर पीढ़ी सुरक्षा प्रदान करने हेतु समर्पित हैं.

” शयन कक्ष, कोठरी या रसोई में प्रतीक मात्र हेतु बने पूजा घर इन अध्यात्मिक मेहमानों को आकर्षित करने के लिए काफी नहीं हैं “, गुरुदेव नें सलाह दी, “एक सम्मानित मेहमान की खातिरदारी कोई उसे अपनी कोठरी में रख कर या रसोई में सुला कर नहीं कर सकता. ऐसा करने के बाद वेह मेहमान से यह उम्मीद नहीं कर सकता की मेहमान यह महसूस करे कि उसका स्वागत हुआ , उसकी सराहना हुई एवं उसे प्यार किया गया.”

अधिकतर सुसंस्कृत हिन्दू घर , घर के पूजा स्थल के इर्दगिर्द घूमते हैं , एक ऐसा विशेष कमरा जो अलग होता है एवं जिसका रख रखाव एक मंदिर जैसा माहोल बनाने के लिए किया जाता है, जिसमे हम पूजा करते हैं, शास्त्र पढ़ते हैं, साधना करते हैं, भजन गाते हैं एवं जप करते हैं. यह पवित्र स्थान एक एकांत शरण स्थली एवं ध्यान करने के कक्ष के रूप में कार्य करता है. यह एक सुरक्षित कमरा है जहाँ हम अपने को दुनियां से पीछे हटा के , अपने अंतर्मन में चले जाते हैं एवं अपनी उच्च चेतना एवं अन्तर्ज्ञान से संपर्क साधते हैं. यह वो जगह है जहाँ हम खुद का सामना करते हैं, अपनी स्वीकारोक्तियों को लिखते हैं एवं जला देते हैं और नए संकल्प लेने का प्रण करते हैं. यह ऐसी जगह है जहाँ अंतर ज्ञान के प्रकाश से संरक्षक देवताओं की सहायता से समस्याएं सुलझती हैं.

आप अपने घर कि तरंगो को नियमित रूप से मंदिर जा कर मज़बूत कर सकते हैं, आदर्श रूप से सप्ताह में एक बार जा के और त्योहारों के दौरान अतिरिक्त फेरा लगा के. मंदिर से घर आ कर पूजा घर में तेल का दिया जलाने से मंदिर का धार्मिक माहोल आपके घर में आ जाता है. यह साधारण कार्य रहस्यात्मक तरीके से मंदिर के देवताओं को सीधे घर के पूजा स्थल पर ले आता है, जहाँ वे आतंरिक दुनियों से परिवार के सदस्यों को आशीर्वाद दे सकते हैं एवं घर के धार्मिक बल क्षेत्र को मज़बूत कर सकते हैं.

गुरुदेव एक अलग पूजा घर के विचार को लेते हैं जिसमे देवतागण एवं भगवान एक कदम और आगे बढ़ा सकते हैं. वे कहते हैं कि सुसंस्कृत एवं भक्त हिन्दू अपने पूरे घर को भगवान को समर्पित कर देते हैं :” इश्वर पूजन, पूजा का जो आदर्श है वो है सदा भगवान के साथ भगवान के घर में रहना , जो कि आपका घर भी है , एवं नियमित रूप से भगवान के मंदिर में जाना. यह अपने अन्दर भगवान को खोजने की नींव रखता है. अपने अन्दर भगवान को कोई कैसे खोज सकता है अगर वेह भगवान के घर में भगवान का साथी बन कर अपने रोज के जीवन में नहीं जी रहा ? उत्तर स्पष्ट है. यह मात्र एक सैधांतिक दिखावा होगा, जो मुख्यतः अहंकार पर आधारित होगा.”

हिन्दू जो अपने घर में भगवान की उपस्थिति में विश्वास करते हैं , स्वाभाविक रूप से उसका सम्मान करना चाहेंगे, यहाँ तक की उसे खाना खिलाना चाहेंगे. वे प्रेमपूर्वक उसकी तस्वीर के सामने खाना रखेंगे, दरवाज़ा बंद करके चले जायेंगे ताकि भगवान और उसके देवतागण भोजन ले सकें. गुरुदेव कहते हैं :” भगवान और देवतागण भोजन का आनंद लेते हैं ; वे ऐसे कर पाते हैं भोजन के प्राण एवं उर्जा को आत्मसात करके. जब भोजन खत्म हो जाता है और सब खा चुके होते हैं, भगवान की थालियाँ भी उठा ली जाती हैं. जो भगवान की थाली में बच जाता है उसे प्रसाद के रूप में ग्रहन किया जाता है , एक आशीर्वाद में दी गयी पेशकश के रूप में. भगवान को भोजन उस तरह परोसा जाता है जैसे परिवार के उस सदस्य को जिसे बहुत भूख लगी हो, केवल प्रतीकात्मक रूप में नहीं. बेशक , भगवान, भगवानों और देवताओं का हर समय पूजा घर में होना निश्चित नहीं होता. वे स्वतंत्र रूप से सारे परिवार, मेहमानों एवं दोस्तों पर नज़र रखते हुए, उनकी बातें सुनते हुए, पूरे घर में विचरण करते हैं. चूँकि परिवार भगवान के घर में रह रहा है एवं भगवान उनके घर में नहीं रह रहे, भगवान की आवाज़ आसानी से उनकी अंतरात्मा की आवाज़ के रूप में सुनी जाती है.”

गुरुदेव हम सबको चुनौती देते हैं : “मनोविज्ञान एवं निर्णय एवं धर्मं है , ‘क्या हम भगवान के साथ रहते हैं या भगवान हमें कभी कभार भेंट करने आते हैं ?’ घर में किसकी सत्ता चलती है , एक गैर धार्मिक , अज्ञानी , दबंग बड़ी उम्र वाले की ? या फिर स्वयं भगवान की, जिसके समक्ष बुजुर्गों सहित सभी परिवार वाले झुकते हैं , क्योंकि वे इस तथ्य के समक्ष समर्पण कर चुके हैं कि वे भगवान के एक आश्रम में रहते हैं ? यही धर्मं है . यही इश्वार्पूजना है .